पूनम पांडे

गर्मी ने अपनी आहट दे दी है। कुछ दिनों बाद लोग इससे बचने के नुस्खों पर अमल करना शुरू कर देंगे। ऐसे में हरी दूब दादी-नानी का आंचल लगती है। कहते हैं कि कुछ सार्थक कहने-सुनने की बस एक ही भाषा है- मौन। मगर आकर्षण की नाभिनाल भी वहां उसके साथ ही ऐसी जुड़ी है कि मन दौड़- भाग कर नजर दूब पर ही टिकाए जाता है और यह भी विचार करता है कि इस हरी दूब से जाकर पूछ लूं कि वह इस जीने को कला कहती है या खेल!

विद्या कहती है या साधना! उसके दुनिया के साथ रिश्ते कितने हरे और कितने पीले हैं! उसके अपने अंतरंग मित्रों में कौन-कौन हैं! वह इस हरेपन को खोज लाई है या उसकी छाया भर है या कहीं वह खुद ही कोई दिव्य हरी परी तो नहीं है! वह कौन-से आनंद में मुक्ति का यह उत्सव मनाती है कि जब-जब उसके तन पर चढ़ती-उतरती काली, लाल चींटी, कभी मंडराती तितली, घूमती-फिरती मधुमक्खी, भंवरे उसके गहरे ध्यान को भंग कर जाते हैं तब क्या वह सबके साथ समभाव रख भी पाती होगी? दूब क्या कभी अपने ठीक पास तन कर खड़े किसी यूकेलिप्टस को कहती होगी कि इतने भी मत अकड़ कर रहो… गंभीर नहीं सहज बनो। संसार में कुछ भी ऐसा महत्त्वपूर्ण नहीं है।

सुबह-सुबह उसके तन पर गिर कर स्नेह जताते हरसिंगारों को छेड़ती रश्मि और शाम को चांदनी से उसकी गुफ्तगू को सोचकर ही गुदगुदी-सी होने लगती है। सहानुभूति, समय, संपत्ति- दूब ने कुछ भी अपने पास छिपा कर कभी नहीं रखा। हर समय रोशनी की तरफ ही देखती है और हरियाली को बांटती रहती है। समय को पीछे से पकड़ कर घुमाया नहीं जा सकता। जीवन की तमाम अति के बीच समन्वय तभी बैठ पाता है जब आंखों का पानी बचा रहे। यही एक स्थायी भाव है। यह दूब भी जानती है कि एक सीमा के बाद लोकप्रियता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। यथार्थ की इसी धूप में तप कर वह हर समय बुद्ध की तरह सजग रहती है कि माटी से जन्मा एक दिन माटी में मिल जाना है।

उल्लासमय होकर कड़ी से कड़ी धूप में भी जब फूल-पत्ते मुरझा रहे होते हैं, यह अकेली हरी-भरी होकर हंसती ही रहती है। कोई राहगीर अगर सुस्ताना चाहता हो तो कौन नहीं जानता कि दूब उसके लिए क्या होती है। यह दूब बहुत मायनो में अनुकरणीय है, क्योंकि हमारा जीवन संबंधों का ही जीवन है। हम हर वक्त संबंध में ही रहते हैं। गांव में नानी के घर के उस बड़े से आंगन की याद आ गई। आंगन के एक हिस्से में हरी-भरी दूब धीरे धीरे फैल रही थी। दूब को देख कर सबकी आंखों में ठंडक आ जाती। बच्चे, बूढ़े और युवा नरम और तन-मन को शीतलता देने वाली दूब पर कुछ कदम चलते बहुत अच्छा महसूस करते थे।

उस हरी दूब का स्वभाव भी बड़ा नरम था। न जाने कितनी चीटियां उस पर चढ़ाई करतीं और फिर उतर जातीं। गौरैया अपने नन्हे-नन्हे पैर उस पर टिका देतीं। गिलहरी भी कभी आम तो कभी अमरूद के पेड़ से उतर कर आती और हरी-हरी दूब पर मन भर कर फुदकती, मगर दूब को कभी क्रोध नहीं आता था। रात को आसमान से ओस की बूंद नीचे आती तो दूब की गोदी में ठहर जाती। हरी दूब पर वह मोती जैसी लगती।

कितने लोग कैमरा लेकर आते और ओस की चमकदार, मनमोहक तस्वीरें उतारते। आंगन में खेलती माली बाबा की पोती अपनी झालर वाली फ्रॉक पहन कर आंगन में खेलने आती। दूब को कभी अपनी हथेली से स्पर्श करती तो कभी अंगुलियों से सहलाने लगती। कभी दाएं और कभी बाएं लहराती। झुक कर मुलायम गालों से दूब को प्यार करती और फिर भाग जाती। उसकी अंगुलियों का कोमल स्पर्श दूब को बड़ा गुदगुदा-सा देता। मन ही मन खिलखिलाती हुई दूब एकाध इंच बड़ी हो जाती थी!

दूब मानो अपने आसपास आने वाले हर जीव को कहती हो कि भद्र बन कर जी लिए तो आनंद ही आनंद। अपने इस समाज से जितना स्नेह और आत्मीयता मिली, अगर उतना ही लौटा दे तो वही भद्र है। अपनी सारी जिंदगी समाज की सेवा में अर्पित कर दे और बदले में समाज से कुछ भी लेने की इच्छा न रखे वही सच्चा जीवन है। कहते हैं कि संवाद से ही संबंध की गुणवत्ता है। दूब की गुणवत्ता खुद वहां की रौनक बता देती है। हवा भी तो माटी से अपने रिश्तों में सघन प्रेम ही चाहती है और यह दूब सच्चे मायनो में उसके लिए सहयोगी, उपयोगी है।

दूब के आस-पड़ोस में खर-पतवार, घास-फूस भी फैल रहा होता है, पर मन के भीतर कटुता या कोई फांस नहीं रखती। उसका चिंतन सार्थक है। मन की कोई बाधा नहीं। वह इच्छा और लालसा की अग्नि में नहीं झुलसती। इसी तरह अपने मूल स्वभाव में जीना और किसी बात की परवाह किए बगैर सरल, सहज होकर जीने से बड़ी बात कुछ है नहीं। अपने भीतर तमाम प्रतिकूलताओं को जज्ब कर लेना दूब को बखूबी आता है। दूब को शायद बोध है कि बहुत ज्यादा अनुशासन भी कोई आनंद मनाने की चीज नहीं होती है। उसे खाद-पानी नहीं देता। वह मैदान की माटी के साथ मस्त विस्तार से रहती है। उसे शांति पसंद है, पर अकेलापन नहीं। बहुत रौनक है उसके आंचल में। हर कोई गुलाब, कमल, मोगरा, चमेली नहीं हो जाता, कोई-कोई खुद्दार शख्सियत दूर्वा भी कहलाती है।