देवेश मिश्रा
जब कभी भी शाम में वक्त मिलता है तो मोहल्ले के पार्क में सैर करने चला जाता हूं। हरी-भरी घांस, रंग-बिरंगे फूल, चिड़ियों की चहचहाहट और तमाम लोग। छोटे बच्चे झूलों के साथ खेलते हुए नजर आते हैं, नौजवान लडके-लड़कियां व्यायाम करते हुए, महिला-पुरुष अपनी-अपनी मंडली बनाए या तो टहलते हुए या बातचीत करते हुए नजर आते हैं। बुजुर्गों का भी इन पार्कों में खूब जमघट लगता है। योग, व्यायाम आदि करते हुए वे भी प्राकृतिक सुंदरता का लुत्फ उठाते हैं। लेकिन आए दिन पार्कों में मुझे अनेक ऐसे बुजुर्ग दिखते हैं जो चुपचाप किसी कुर्सी पर अकेले, उदास और गुमसुम-से बैठे रहते हैं। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट की जगह एक गहरी उदासी देखी जा सकती है। अपने आसपास देखने पर हमें ऐसे तमाम बुजुर्ग मिलेंगे जो अकेलेपन और उदासी से ग्रसित हैं। उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचने के बाद वे अकेले हो जाते हैं। कोई भी उनके साथ समय बिताना नहीं चाहता।

आखिर हमारे देश के ही नहीं, बल्कि विश्व भर के बुजुर्गों को यह उपेक्षा क्यों झेलना पड़ रहा है? भारत में कोरोना महामारी के प्रकोप के कारण घरों में महिलाओं और बुजुर्गों के साथ घरेलू हिंसा के दर में बेहद गंभीर बढ़ोत्तरी देखी गई है। इंटरनेट पर बुजुर्गों के अत्याचार से संबंधित सीसीटीवी में कैद हो गए एक वीडियो में मैंने देखा कि एक व्यक्ति अपने बुजुर्ग माता-पिता को मोटरसाइकिल से एक शांत जगह ले गया और उन्हें सड़क पर छोड़ कर और उनका सामान नीचे फेंक कर वहां से भाग गया। एक अन्य घटना में छत से धकेल दिए जाने की वजह से एक बुजुर्ग महिला की मौत हो गई।

जिस देश में माता-पिता को ईश्वर का दर्जा दिया जाता रहा हो, वहां वृद्धाश्रमों की बढती संख्या एक चिंता का विषय है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के एक शहर के वृद्धाश्रम में जाना हुआ। बातचीत के दौरान वहां देखभाल करने वाले व्यक्ति ने बताया की पिछले आठ-दस वर्षों से अच्छे घरों के और अच्छे पदों पर काम करने वाले पढ़े-लिखे लड़के अपने बुजुर्ग मां-बाप को लेकर यहां आते हैं। कई मां-बाप ऐसे होते हैं जो चल-फिर नहीं सकते। कइयों की यादाश्त चली गई है। कई बुजुर्ग किसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे होते हैं। ऐसे में उनकी देखभाल बेहद जरूरी हो जाता है।

समय-समय पर उन्हें आहार और दवाई देनी होती है। चल-फिर न सकने के कारण उन्हें शौच कराना और साफ-सफाई का ध्यान रखना भी कम जिम्मेदारी वाला काम नहीं होता है। ऐसे बुजुर्गों की सेवा से बचने के लिए वे लड़के वृद्धाश्रम में अपने मां-बाप को लेकर आते हैं और मुंहमांगे पैसे देने को तैयार रहते हैं। उनके पास पैसा, रुतबा, ओहदा, संसाधन सब कुछ होता है, लेकिन वे अपने माता-पिता को वक्त नहीं दे सकते। सवाल है कि जो मां-बाप पूरा जीवन अपने बच्चों के भविष्य के बेहतरी के लिए समर्पित कर दिए हों, क्या उन्हें इसका यही परिणाम मिलना चाहिए?

बुजुर्गों के लिए सरकारी नीतियां बहुत बनाई जाती हैं, लेकिन क्या जमीनी स्तर पर उन्हें लागू किया जाता है? खासतौर पर युवाओं से यह पूछने का मन करता है कि जिस तरह वे अर्थव्यवस्था, भ्रष्टाचार, महामारी, लालफीताशाही, कचरा प्रबंधन आदि समस्याओं पर चिंतन करते हैं तो क्या उनके चिंतन में बुजुर्ग भी आते हैं? क्या बुजुर्गों की बेहतरी की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार और एनजीओ की है? जिसने अपनी जवानी में खेती, व्यापार, नौकरी आदि करके इस देश और समाज के विकास में अपना योगदान दिया हो, उसके लाचार होने पर क्या हमें उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ देना चाहिए?

यूरोप के कुछ देशों में इस समस्या को देखते हुए एक समर्पित मंत्रालय बनाया गया है जो बुजुर्गों के अकेलेपन को दूर करने के लिए निर्णायक कदम उठाते हैं। हम सबको अब इस समस्या से निजात पाने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। जिन बुजुर्गों की कोई संतान नहीं है, उन्हें वृद्धाश्रम में भेजा जा सकता है, ताकि उनका वहां के स्वयंसेवकों द्वारा देखभाल किया जा सके और समाज का अंग होने के कारण प्रति माह अपने आय का एक तय हिस्सा ऐसे वृद्धाश्रमों को दान देने का प्रण हर व्यक्ति को लेना होगा।

दूसरी बात यह कि जो संतान अपने बुजुर्ग मां-बाप की सेवा न करके उन्हें वृद्धाश्रम में भेजना चाहते हों, उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहिए। सरकार ऐसे संतानों पर कानूनी कार्रवाई करे तो मेरे हिसाब से गलत नहीं होगा। तीसरी बात यह कि सरकार को बिना किसी भेदभाव के बुजुर्गों के स्वास्थ्य सेवाओं को मुफ्त कर देना चाहिए, उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्रशिक्षित युवाओं की मदद लेकर उन्हें तनाव और अवसाद से मुक्त करने में सरकार को अहम भूमिका निभानी चाहिए।
जिस देश के बुजुर्ग उदास हों, वह देश कभी खुश नहीं हो सकता है। वृद्धावस्था एक सत्य है। जो आज युवा हैं, वे कल बूढ़े हो जाएंगे। क्या कोई युवा ऐसा बुढ़ापा व्यतीत करना चाहेंगा, जहां वह अकेलापन, उदासी, पीड़ा, अवसाद आदि से जूझ रहा हो? अगर नहीं तो हमें वह सब करना होगा, जो हम चाहते हैं कि हमारे बुजुर्ग होने पर हमारे लिए किया जाए। वह तरक्की किस काम की जो बुढ़ापे में मां-बाप का सहारा न बन सके।