जगदीश बाली
जो भाषा दिल में नहीं उतरती, वह जनमानस की भाषा नहीं बन सकती और जो भाषा जनमानस की नहीं बन सकती, वह कभी विकसित नहीं हो सकती। यह महत्त्वपूर्ण है कि किसे कौन-सी बात किस भाषा में समझ आती है।
नेल्सन मंडेला ने कहा भी है- ‘अगर आप एक आदमी से उस भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह उसके दिमाग तक जाती है। वहीं अगर आप उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल में उतरती है।’ इसमें कोई संदेह नहीं कि निज भाषा में ही हम सबसे पहले अपने जज्बातों और अहसासों को शब्दों का रूप देते हैं। इस दृष्टि से हिंदी हमारी पहली भाषा है, लेकिन दूसरी भाषाएं भी गैर नहीं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा है ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’ पर उनके कथन को आज की बदलती और सिमटती दुनिया के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है, क्योंकि उस युग से आज तक आते-आते काफी कुछ बदल गया है। वे स्वयं कई भाषाओं के ज्ञाता थे। सभी को अपनी भाषा का प्रचार करने का हक है और उसे ऐसा करना भी चाहिए। इसमें कोई समस्या नहीं।
किसी क्षेत्र या देश की सभ्यता और संस्कृति को जानने के लिए आवश्यक है कि हम उस जगह की भाषा को समझें, क्योंकि भाषा अपने साथ संस्कृति के रंग संजोए रखती है। आज हम गूगल, फेसबुक और वाट्सऐप के प्रचार और संप्रेषण के ऐसे युग में रह रहे हैं जहां हर देश पड़ोसी ही लगता है। रोजगार के लिए या फिर अन्य किसी प्रयोजन से लोग एक-दूसरे देश आ-जा रहे हैं।
ऐसे में हम एक ही भाषा से चिपक कर नहीं बैठ सकते। आज बहुभाषिया होना एक अहम सलाहियत है। विचारक योहान वुल्फगांग फान गेटे ने कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। उन्होंने कहा है- ‘जिसे किसी विदेशी भाषा का ज्ञान नहीं, उसे अपनी भाषा का भी ज्ञान नहीं होता।’
सोलहवीं शताब्दी के रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने कहा था- ‘मैं ईश्वर से स्पेनिश में, महिलाओं से इतालवी में, पुरुषों से फ्रेंच में और अपने घोड़ों से जर्मन में बातें करता हूं।’ यानी जितनी अधिक भाषाएं जानते हैं, उतना ही बेहतर आप अपने विचारों का संप्रेषण कर सकते हैं।
अगर हम अपनी-अपनी भाषाओं के दायरे खींच लें, तो न तो भाषाओं का आदान-प्रदान होगा, न उनका विकास होगा और न ही हम एक-दूसरे की संस्कृति से पूरी तरह वाकिफ हो पाएंगे। इस तरह भाषाओं का परस्पर मेल भी नहीं हो पाएगा। सोचिए, अगर भाषाएं एक-दूसरे से न मिलतीं, तो ‘श्रीमदभगवद गीता’ को केवल हिंदू पढ़ पाते, ‘कुरान’ मुसलमान ही पढ़ते, ‘आदिग्रंथ’ केवल सिख जानता और ‘बाइबल’ केवल ईसाइयों तक सीमित रहती। लेकिन इन पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध होने से विश्व के लोग इन्हें पढ़ पाते हैं।
हमारे देश की आजादी में भी कई भाषाओं का योगदान रहा है। राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’ और राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ हमें बांग्ला ने दिए और ‘सारे जहां से अच्छा…’ इकबाल की उर्दू भाषा में लिखी गई देश प्रेम की गजल है। अगर ‘दिल्ली चलो’, ‘करो या मरो’, ‘जय हिंद’ जैसे नारे हिंदी के हैं, तो क्रांति का प्रतीक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ उर्दू जबान का है। रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ को व्यापक सम्मान अंग्रेजी में अनूदित होने के उपरांत मिला। चाहे रामप्रसाद बिस्मिल हिंदी से प्रेम करते थे, लेकिन उनका उर्दू से बहुत लगाव था।
उन्होंने बिस्मिल को अपना तखल्लुस बनाया और कई वतनपरस्ती से लबरेज तराने लिखे। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और दुष्यंत कुमार की गजलों में हिंदी और उर्दू जिस तरह से हमामेज हुई हैं, वह साहित्य को एक खूबसूरत आयाम देता है। जहां हिंदी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने देश की आजादी में अहम भूमिका निभाई, वहीं आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी का इस्तेमाल पुनर्जागरण के लिए किया। तमाम उदाहरणों के सिलसिले हैं।
भाषा को किसी खूंटे से नहीं बांधा जाना चाहिए, अन्यथा यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है, जिसे जीने के लिए दाना तो मिलता है, पर उसकी उड़ान कुंद रह जाती है। तेरहवीं शताब्दी के इंग्लैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक रोजर बेकन ने कहा था- ‘ज्ञान की चोटी पर हम विभिन्न भाषाओं को जान कर पहुंच सकते हैं।’ वास्तव में भाषाएं बहनों की तरह होती हैं।
वे कभी नहीं टकरातीं। टकराती तो भाषा के प्रति हमारी मानसिकता है। भाषाएं जब मिलती हैं तो हवाओं में मोहब्बत की खुशबू फैलती हैं और फिजाएं शगुफ्ता हो जाती हैं। भाषा का इस्तेमाल दिलों की हदें मिटाने के लिए करें, हदें बनाने के लिए नहीं। दिलों की हदें जब टूटती हैं, तो दिल जुड़ते हैं और जब दिल जुड़ते हैं तो हम मुस्कराते हैं और मुस्कराने की कोई एक खास भाषा नहीं होती।