राकेश सोहम्
मेरा बचपन गांव में बीता। उन दिनों गांव सचमुच गांव की तरह हुआ करते थे। उनमें शहरों की कोई झलक नहीं थी। हवाओं में महुए की महक, अमराइयों की मादकता। बारिश की पहली फुहार के साथ खेतों से उठती सौंधी खुशबू। चारों ओर दूर-दूर तक हरियाली का डेरा। शीत ऋतु की भोर में ताजे पत्तों पर लरजते ओस के मोती। शीतल कोमल घास से पटे मैदान। गर्मियों की रात में खुला नीला आकाश और अंधेरे में चम-चम करते जुगनू। पंछियों से चहकती सुबहें और गोधूली में ढलती खुशनुमा शाम।

गांव में उन दिनों व्यक्तिगत परिवहन साइकिल से होता था। सामूहिक आवागमन बैलगाड़ियों से किया जाता था। ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल बहुत बाद में आए। बैलगाड़ियां जिस राह चलतीं, वहां उसके पहियों के समानांतर निशान पड़ जाते थे। यही दो समांतर निशान गांव का पहुंच मार्ग मान लिया जाता था। सामान्य तौर पर लोग इन्हीं रास्तों से आते-जाते। बैलगाड़ियां बार-बार इन्हीं रास्तों से गुजरतीं और पहियों के निशान और गहरे होते जाते। बैलों के खुर इन्हें चौड़ा कर देते। वहां धीरे-धीरे समांतर नालियां-सी बन जाती थीं। गाड़ियों में जुते बैल बिना इशारे उन्हीं नालियों का अनुसरण करते हुए गंतव्य तक पहुंचा देते। उन्हें हांकने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। कई बार तो गाड़ीवान बेफिक्र अपनी नींद पूरी कर लेता था। ऐसे गांव आज भी शहरी आपाधापी में मन के अंदरूनी कोने में जिंदा हैं, जिसका निर्मल वातावरण, प्रकृति के शुद्ध पर्यावरण से भरपूर था।

बहरहाल, मैंने इन्हीं रास्तों पर साइकिल चलाना सीखा था। उन दिनों बच्चों के लिए छोटी साइकिल अस्तित्व में नहीं आई थी। घर में एक अदद साइकिल का होना गर्व का विषय हुआ करता था। मैंने बड़ी साइकिल से ही सर्वप्रथम ‘कैंची’ चलाना सीखा था। साइकिल को बिना सीट पर बैठे ‘कैंची’ चलाने का अनोखा तरीका था। बायां हाथ साइकिल के एक हैंडल पर और दाहिना हाथ सीट के ऊपर से होता हुआ बीच वाले डंडे पर। वह भी ऐसे कि सीट का अग्र-भाग कांख के नीचे दबा हो। साइकिल के डंडे को मजबूती से पकड़े रहना ही साइकिल पर बने रहने का उपाय था। कैंची चलाते समय पैर पैडल पर और पूरा शरीर साइकिल के त्रिकोणीय डंडों के बीच झूलता रहता था। बड़ा ही अजीब और रोमांचक था साइकिल को ऐसे चलाना।

एक दिन बहुत तेजी से साइकिल चला रहा था। अचानक सामने से एक मृत्युशैया आती दिखी। लोग ‘राम नाम सत्य है’ उच्चारते हुए चले आ रहे थे। मैं नौसिखिया चालक था। साइकिल को रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन ब्रेक नहीं लग पाया। मैं सीधे मृत्युशैया के नीचे जा घुसा। कांधा देने वाले चारों लोग जो रास्ते की समांतर नालियों में चल रहे थे, घबरा कर अपना संतुलन खो बैठे और मृत्युशैया मेरे ऊपर आ गिरी। मुझे घुटनों में सामान्य चोट लगी, लेकिन शव को अपने ऊपर गिरता देख मैं भय से बेहोश हो गया। यह भय मेरे मन में गहरे बैठ गया था। कई बरस तक मृत्युशैया को निकलते देखता तो तबियत खराब हो जाती थी। मुझे मृत्यु-भय हो गया था, जो बहुत बाद में प्रकृति से गहरे जुड़ाव के कारण खुद ही दूर हो गया।

चिकित्सक मानते हैं कि ‘मृत्यु-भय’ एक रोग है। होमियोपैथी में बाकायदा इसका इलाज है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति एकांतवास से डरता है। अंधेरा उसे खाने को दौड़ता है। वाहन चलाते हुए उसका विश्वास डगमगा जाता है। किसी के साथ वाहन की सवारी उसे असुरक्षित लगती है। उसे आशंका रहती हैं कि चालक कहीं कोई प्राणघातक दुर्घटना न कर बैठे। मेरे मित्र एक प्रतिष्ठान में उच्चाधिकारी हैं। उन्हें कार्यालय की आवश्यक बैठकों के लिए अक्सर दूसरे शहरों की यात्रा करनी पड़ती है। वह दफ्तर के व्यय पर हवाई-यात्रा की पात्रता रखते हैं, लेकिन वे ट्रेन से यात्रा करते हैं। उन्हें हवाई यात्रा से भय लगता है। वे हवाई दुर्घटना की आशंका से घिर जाते हैं। ऐसे भय कई बार जीवनपर्यंत बने रहते हैं। एक और सहकर्मी मित्र मझोले शहर में रहतीं हैं।

वे एक दिन साइकिल रिक्शा से बाजार जा रही थीं। अचानक एक स्कूटर रिक्शे के ठीक बगल से निकला। उसकी किक रिक्शे के एक पहिए के ‘स्पोक्स’ को तोड़ती हुई निकल गई। स्पोक्स के अभाव में पहिया पिचक गया और रिक्शा झटके से एक ओर झुक गया। मेरी मित्र गिर कर दुर्घटना का शिकार हो गईं। इतनी छोटी-सी घटना से उनका मानसिक संतुलन इतना आहत हुआ कि वह आज भी भीड़ में दोपहिया वाहन नहीं चला पातीं। उनके रोजमर्रा के छोटे-छोटे काम, जिन्हें दोपहिया वाहन के द्वारा आसानी से निपटाया जा सकता है, वे बाधित हो जाते हैं।

मृत्यु निश्चित है। इसी विषय पर हॉलीवुड की बहुचर्चित फिल्म ‘फाइनल डेस्टिनेशन’ के अनेक भाग आ चुके हैं। इनमें एक सीख भी छिपी है कि भय के साथ जीना कायरता है। विख्यात फिल्म ‘शोले’ के गब्बर का संवाद याद क८रिए- ‘जो डर गया समझो मर गया’। कहते तो यह भी हैं कि ‘जब जब जो जो होना है, तब तब वो वो होता है’। इसलिए जीवन में आगे बढ़ना है तो निर्भय रहें, प्रकृति के साथ रहें।