मोनिका भाम्भू कलाना
कई साल पहले मैंने जब बाल रखने शुरू किए, तब इसके लिए मुझे कुछ भी अतिरिक्त सोचना नहीं पड़ा, क्योंकि पैदा होने के बाद से ही संस्कारों के नाम पर उसके जरिए सामान्य व्यवहार के साथ-साथ बाकी चीजें इस कदर जेहन में डाल दी जाती हैं कि लगता है यह बिल्कुल प्राकृतिक और अनिवार्य है। साथ ही किसी भी कार्य को करने का एकमात्र तरीका भी। लेकिन पिछले दस सालों से मैं हर वक्त उस निर्णय को बदलने के लिए खुद से जूझती रही जो मेरा था ही नहीं और किसी मायने में मेरी सहभागिता उसमें रही भी तो वह बचपना, उत्साह की कोई भावना या फिर परिवर्तन की चाह ही रही होगी। इसके अलावा, सेहत से लड़ते हुए मेरी हिम्मत भी नहीं हुई कि मैं किसी निर्णय तक पहुंच सकूं। आखिरकार चार माह पहले मैंने इस मसले पर फैसला लिया।

कहने का आशय यह है कि अपने लिए किसी निर्णय को लेने में अक्सर व्यक्ति को दिन, माह या फिर एक अरसा लग जा सकता है। ऐसा बहुत सारे वैसे विषयों के बारे में भी हो सकता है, जो खुद से संबंधित हों। अपने बारे में राय बनाने में बहुत वक्त लग जाता है, काफी वक्त ऊहोपाह में गुजर जाता है। लेकिन आमतौर पर ऐसा ही व्यक्ति क्यों वैसे कुछ दूसरे लोगों के बारे में भी तत्काल कुछ भी कह देने के लिए उतावला रहता है, जिनको हम कतई नहीं जानते? क्या कारण है कि बगैर किसी प्रयोजन, कोई विचार या आधार के हम उनके बारे में बहुत जल्दी किसी निष्कर्ष तक पहुंच जाते हैं? मनुष्य में ऐसी कौन सी प्रवृत्ति है जो उसे अपने और ‘सामने वाले’ के बारे में इतने अंतर से सोचने को बाध्य करती है। किसी व्यक्ति की स्थिति, परिस्थिति के बारे में बिल्कुल अनजान होते हुए भी आखिर क्यों कोई ‘सीधे फैसले’ या सलाह पर उतर आता है।

कितने आराम और कितनी सहजता से हम किसी व्यक्ति, वस्तु, जगह, स्थिति, दुर्घटना पर बिना देर किए अपनी टिप्पणी दे देते हैं। हम अक्सर यह करते हैं मानो यह न केवल हमारा अधिकार हो, बल्कि अपने को जागरूक साबित करने के लिए अनिवार्यता भी। बल्कि कई बार ऐसी टिप्पणियां भी होती हैं, जो बेमानी और फालतू होती हैं और इतनी तात्कालिक होती हैं कि दीर्घकाल में शायद ही उनका कोई मूल्य हो। लेकिन किसी विशेष परिस्थिति में फंसे हुए व्यक्ति पर ऐसी चीजें बहुत प्रभाव डाल सकती हैं। जिंदगी के संघर्ष में बाहरी और अंदरूनी अंतर्विरोधों से जूझते हुए व्यक्ति के लिए गुबार निकालने के लिए दूसरों द्वारा तात्कालिक आवेश या हड़बड़ी में कही हुई कुछ बातें किसी खराब वक्त में निर्णायक बन जाती हैं। इतनी प्रभावी कि कहने वाला व्यक्ति कभी सोच भी नहीं सकता।

ऐसे मामले आए दिन देखे जाते हैं कि आवेश में कही किसी बात की प्रतिक्रिया में किसी व्यक्ति ने या तो दूसरों को या फिर खुद को गहरा नुकसान पहुंचा दिया। व्यक्ति के मनोविज्ञान और मानस की संरचना बेहद जटिल होती है। वह उसकी पृष्ठभूमि से निर्मित हुई हो सकती है। किसी मनो-मस्तिष्क कोमल हो सकता है और अपने ऊपर की गई टिप्पणियों के संदर्भों का सामना करने के बजाय वह उसके असर में बिखर भी जा सकता है। हां, इस बात से भी इनकार नहीं कि कोई व्यक्ति इतना भी मजबूत हो सकता है कि ऐसी टिप्पणियों को या तो मनोरंजन के तौर पर देखे या फिर अनदेखी करके अपने बूते आगे बढ़ जाए।

आज के इस व्यक्तिवादी समय में मनुष्य का साधिकार हस्तक्षेप दूसरों के जीवन में कम होता गया है और अपनों की परिधि सिकुड़ कर निरंतर संकरी होती गई है। तब भी मनुष्य अपनी आदिम प्रवृत्तियों की संतुष्टि के लिए अचानक फैसले देने की अपनी आदत से बाज नहीं आया है। ये आदतें वास्तविक दुनिया से अलग सोशल मीडिया के मंचों के माध्यम से तो और ज्यादा बढ़ी हैं, जहां क्षणिक चर्चा में आने के लोभ में लोग किसी के बारे में कुछ जाने बगैर कुछ भी राय जाहिर कर देते हैं। यही उनकी आजादी की सीमा है, क्योंकि भारतीय घरों में तो ऐसे लोगों की स्थिति वही है, जो सदा से रही है। इसलिए खुद को महत्त्वपूर्ण व्यक्ति सिद्ध करने के एवज में दूसरों की छोटी तकलीफों के बारे में सोचना लोग ठीक नहीं समझते।

अगर व्यक्ति स्वयं की जुबान पर संयम रखें और हड़बड़ में न्यायाधीश जैसा बनने की अपनी भावना को केवल अपनी ही जिंदगी तक सीमित रखें तो ऐसे गैरजरूरी निर्णय देने की प्रवृत्ति को नियंत्रित किया जा सकता है, जिसका असर किसी की जिंदगी और उसके मनोविज्ञान पर गहरे तौर पर पड़े। अगर वह सोच सके कि हर वह दूसरा व्यक्ति, जो भले कितना ही अपरिचित क्यों न हो, आखिर उसके जैसा ही मनुष्य है, उसके भावों के प्रति न सही, उसके अस्तित्व की गरिमा के प्रति भी सजग रहा जाए तो अधिकतर ऐसी आशंकाओं से बचा जा सकता है। अगर हम छोटी-छोटी चीजों पर गौर करें, तो दूसरों के जीवन में समस्या बन जाने वाली और उन्हें सहज महसूस न होने देने वाली समस्याओं में बिना अतिरिक्त प्रयास के कटौती कर सकते हैं।