सपना गांधी

विद्यार्थियों को पढ़ाना सदैव सुखद अहसास देता है। खासतौर पर कॉलेज में पढ़ाते हुए हम युवाओं की सोच से भी अवगत रहते हैं। कुछ साल पहले पाठ्यक्रम में शामिल प्रेमचंद कृत ‘बूढ़ी काकी’ कहानी को पढ़ाने-समझाने के बाद कक्षा में चर्चा के लिए विषय दिया गया- ‘भारत में वृद्धाश्रम होने चाहिए या नहीं।’ छात्राओं को हां या ना में उत्तर और उसकी पुष्टि के लिए तर्क और कारण देने थे। अप्रत्यक्ष रूप से यही जानना चाहती थी कि अपने माता-पिता के लिए उनके मन में क्या भाव हैं? प्रश्न सीधे-सीधे नहीं पूछा गया और अपने विचार मैंने अंत के लिए सुरक्षित रख लिए, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में ईमानदार उत्तर शायद नहीं मिलते।

हालांकि चर्चा के बाद जो उत्तर मिले, वे सुकून देने वाले थे। चार-पांच को छोड़ कर सबने कहा कि वृद्धाश्रम नहीं होने चाहिए। लेकिन अब कुछ सालों बाद इसी मसले पर विद्यार्थियों के उत्तर सुकून नहीं देते। अनुपात शीघ्रता से विपरीत हो गया है। पिछले वर्ष पाठ्यक्रम में भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ भी जुड़ गई है। दोनों कहानियों की केंद्रीय पात्र वृद्ध विधवाएं हैं। दोनों ही कहानियां सामान्य ग्रामीण और नगरीय परिवार से आगे नगर और गांव की सीमा में लाखों घर-परिवारों की मानसिकता को उजागर करती हैं।

साहित्य और साहित्य शिक्षण दोनों का ही उद्देश्य मानवीय मूल्यों की स्थापना है। यथास्थिति को दिखाने-समझाने के पीछे भी मंशा आदर्श-स्थापना की ही होती है। रघुवीर सहाय के शब्दों में- ‘कुरूप को दिखाना यथार्थ को दिखाना तभी माना जा सकता है कि जब लेखक के मन में सुंदर का एक स्वप्न हो।’ शायद दोनों कहानियों में भी कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति करते हुए लेखक यही कहना चाह रहे थे कि हमें घर के बुजुर्गों को स्नेह और आदर देना चाहिए।

उनके त्याग को समझ कर निस्वार्थ सेवा करनी चाहिए। युवाओं की सोच और विचारों में तेजी से परिवर्तन देख कर लगा कि पीढ़ी-अंतराल की दर सिमट कर एक-दो वर्ष रह गई है। व्यक्तिगत मूल्य, जीवन के प्रति दृष्टिकोण और लक्ष्य तेजी से बदल रहे हैं। आज का युवा संवेदनशील होने के बजाय यांत्रिक और व्यावहारिक होता जा रहा है। हालांकि मेरे लिए युवाओं के तर्क चौंकाने वाले थे। कुछ का कहना था कि पीढ़ी का अंतर होने से सोच नहीं मिलती, व्यस्तता के कारण समय नहीं दे पाते। इसलिए वृद्धाश्रम में उन्हें अपने जैसे अन्यों का साथ मिल जाएगा, सिर पर छत भी होगी और वहां उनकी अच्छी देखभाल भी हो जाएगी।

हमारे देश में समाज सेवा को उपजीविका के रूप में बहुत कम लोग अपनाते हैं। ऐसे में अच्छी देखभाल कहां तक संभव है, वृद्धाश्रम चलाने वाले गिने-चुने होते हैं और वृद्धों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक। व्यस्तता का तर्क भी कहां तक उचित है। जब हम घंटों सोशल मीडिया पर सक्रिय रह सकते हैं तो क्या कुछ क्षण वृद्ध माता-पिता को नहीं दे सकते। अपने जैसे अन्यों के साथ की बात भी कितनी खोखली है! बच्चों-युवाओं को भी कहा जाए कि वे सदैव हमउम्र के साथ सहर्ष मौज-मस्ती करें तो क्या उनके लिए संभव होगा? पशु-पक्षी तक सांझ होते ही अपने ठौर और परिवार के पास लौट आते हैं तो वृद्ध कैसे घर-परिवार के बिना खुश रह सकते हैं। जहां तक सिर पर छत की बात है तो क्या वृद्धावस्था को अपनी इच्छाओं का अंत मान लेना चाहिए?

कई बार आर्थिक स्थिति अच्छी न होने का तर्क दिया जाता है, लेकिन गरीबी और वृद्धों की समस्या दोनों अलग हैं। जहां तक स्वतंत्रता की बात है तो स्वतंत्रता और अकेलेपन में अंतर होता है। आजादी का अर्थ अपनों से मुक्त होना नहीं, बल्कि अपनों के साथ रहते हुए एक दूसरे के विचारों,पसंद-नापसंद का सम्मान करना है। विदेशों की बात अलग है। वहां वृद्ध अपनी इच्छा और खुशी से वृद्धाश्रम में रहते हैं। उनके लिए स्वतंत्रता का अभिप्राय अलग है। एक तर्क निस्संतान दंपति या जो अपनी संतान खो चुके हैं उनके लिए वृद्धाश्रम के पक्ष में आता है। क्या ऐसे बुजुर्गों का कोई सगा-संबंधी, पड़ोसी और परिवार नहीं होता? दूसरी ओर, वृद्धाश्रमों के आंकड़े कुछ और ही बताते हैं। वहां ज्यादातर वैसे विवश वृद्ध हैं, जिनकी संतानें हैं। सच यह है कि वृद्धाश्रम एकमात्र हल नहीं है।

कई युवाओं की राय सुन कर लगता कि जितने परिवारों में वृद्धजन हैं, उन्हें साथ रखना मानो ‘चीफ की दावत’ के शामनाथ की तरह उनकी विवशता है। क हानी में शामनाथ अपनी मां के हरिद्वार जाने की बात सुन कर क्रोध में कहते हैं- ‘तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा अपनी मां को अपने पास नहीं रख सकता।’ जो लोग वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आने की हिम्मत रखते हैं, क्या ‘बूढ़ी काकी’ की रूपा की तरह कभी उनकी सोई हुई मानवता जागेगी और उनका हृदय परिवर्तित हो करुणा से भर उठेगा? प्रश्न सिर्फ वृद्धों को वृद्धाश्रम भेजने का नहीं है।

घर में होते हुए भी अगर उनकी उपेक्षा की जाए, उन्हें बोझ, मुसीबत, बाधा या समस्या समझा जाए तो यह भी उन्हें बेघर करने जैसा ही है। अगर अनाथ बच्चों को गोद लिया जा सकता है तो क्या कभी बेघर होते वृद्धों को अपनाने, गोद लेने या उनकी जिम्मेदारी उठाने जैसा चलन भारत में होगा? यह अतिकल्पना हो सकती है, पर इंसानी संवेदनाएं हमारे भीतर उम्मीद कायम रखती हैं।