राजकुलीन शिष्यों के साथ धनुर्विद्या सीखने के अभिलाषी एकलव्य को जब गुरु द्रोणाचार्य ने अपना शिष्य बनाने से इनकार कर दिया तो उसने अपनी इच्छाशक्ति, लगन और मेहनत के सहारे इस विद्या में महारत हासिल कर ली। लेकिन हर विद्यार्थी के लिए एकलव्य बन पाना सहज नहीं। सौभाग्य से हमारे देश में गुरु-शिष्य परंपरा अभी पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है। ललित कला और क्रीड़ा जगत तो इसके बिना सूने रह जाते। पिछली शताब्दी में अध्यात्म की दुनिया में ख्यात कुछ लोगों ने विदेशों में भारतीय अध्यात्म की अलख जगाई तो किसी बाबा ने भारतीय संगीत के प्रति पूरी दुनिया में आकर्षण जगा दिया। आज तो संगीत नृत्य आदि के दिग्गज गुरु समृद्ध पश्चिमी देशों में रह कर भरपूर दक्षिणा देने वाले शिष्यों के साथ इतना व्यस्त रहते हैं कि भारत में उनके दर्शन कठिनाई से होते हैं।
इस विचित्र विरोधाभास का सामना यह गुरुबहुल देश कर रहा है स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में। विदेशों में हमारे गुरुओं की धूम मची हुई है और स्वदेश में स्कूली शिक्षा रसातल को उन्मुख है। निजी स्कूलों में ऊंची फीस के बदले में फीके पकवान से त्रस्त विद्यार्थी विलाप कर रहे हैं ‘बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं।’ सरकारी स्कूलों का आकर्षण केवल मध्याह्न भोजन में सिमट गया लगता है। वह भी आजकल पता नहीं किस हालत में है कितने बच्चों को मिल पा रहा है। शिक्षा की घटिया गुणवत्ता सभी विद्यार्थियों को कोचिंग कक्षाओं और निजी ट्यूशन की बैसाखी लगा कर चलने के लिए मजबूर कर रही है। आइआइटी जैसी मानक संस्थाओं में प्रवेश पाने के लिए लाखों रुपए खर्च करके कोचिंग कक्षाओं की शरण में जाना एक अनिवार्यता बन चुका है। उधर कोचिंग संस्थान रुपया बनाने की मशीन बन चुके हैं। जो इक्का-दुक्का संस्थाएं एकाध समर्पित अध्यापकों के सहारे बाजार का भरोसा जीत सकीं, उनका बाजार मूल्यांकन हजारों करोड़ डॉलर के गगनचुंबी तल पर पहुंच गया है। बिलियन डॉलर खर्च करके कोचिंग संस्थाओं में निवेश करने वाले क्या कोचिंग में पढ़ाई करने की फीस अब करोड़ों तक पहुंचाएंगे?
ऐसे में कुछ क्षेत्रों में गुरुओं की भरमार विचित्र लगती है। आजकल महामारी के विषय में सोशल मीडिया पर अधकच्ची सलाह देने वाले स्वघोषित गुरुओं की भीड़ है। करेले से लेकर कद्दू तक और शीर्षासन से लेकर शवासन तक को महामारी की रामबाण औषधि बताने वाले गुरुवर चारों ओर फैले हुए हैं। लेकिन गुरुओं के ज्ञान से उफनती यू-ट्यूब पर जब मैंने महामारी के विषय में कुछ बुनियादी जानकारी हासिल करनी चाही तो निराशा हाथ लगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् के निर्देशों को तोते की तरह दुहरा देने वाले विशेषज्ञ तमाम चैनलों पर ज्ञान बांटते मिले, लेकिन मेरे मन में जो प्रश्न विषाणु की बनावट, उसके संक्रमण की तकनीक, उससे बचाव और लड़ने के तरीकों, विभिन्न टीकों के तुलनात्मक गुणवत्ता आदि को लेकर थे, आमतौर पर अनुत्तरित रहे। सही गुरु की तलाश करते हुए एक लोकप्रिय यू-ट्यूब चैनल पर एक अद्भुत ‘गुरु’ के दर्शन हो गए। उनके ज्ञान का सागर गूगल और विकीपीडिया से अधिक गहरा नहीं, बल्कि शायद उनके ज्ञान का स्रोत अन्य प्रकाशित सामग्री के अलावा गूगल, कोरा और विकीपीडिया आदि ही हैं। तभी उनके पास हर विषय के बारे में भरपूर जानकारी है। समसामयिक विषय हों या सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक या वैज्ञानिक- सब पर उनकी पकड़ हैरान करने वाली है। लेकिन उनकी विशेषता यह नहीं कि वह इन सभी ऐसे विषयों के एक बड़े विद्वान हैं, बल्कि उनकी अप्रतिम प्रतिभा दिखती है किसी भी प्रश्न के कलपुर्जे खोल कर अंदर की सारी मशीनरी, संरचना का रहस्य साधारण बोलचाल की भाषा में खोलने में। तब वे सहज, सरल, सस्मित शिक्षण के विशेषज्ञ लगते हैं।
आप पूछेंगे कि ‘हमारे शरीर के अंदर कोरोना विषाणु के विस्तार की प्रक्रिया समझाने में गंवई भाषा और सहज हास्य का क्या काम?’ तो उदाहरण के लिए इस टुकड़े पर गौर किया जा सकता है- ‘हमारा शरीर फोटो कॉपियर की तरह बढ़ते हुए सेल्स (प्रकोष्ठों) की कॉपी छापता है। अब ई कोरोनोवा अपनी तस्वीर उस मशीन पर रख देता है। मशीन का काम है छापना। ऊ क्या जाने फोटो किसकी है। ऊ विषाणु की फोटो छापती जाती है। और जो कोरोना पहले से शरीर में घुसे बैठे हैं, ऊ सब नई फोटो देख कर खुश होकर कहते हैं कि चाचा आ गए, चाचा आ गए’। यह समझाते हुए वे गुरु जी बाकायदा ताली बजा-बजा कर खुश विषाणुओं की नकल में सिर मटकाते हैं। मजे की बात यह कि वे गुरु टेस्ला कार से लेकर रफाल विमान तक, हर विषय में कठिन प्रश्नों के सरल जवाबों की खान हैं।
मुझे नहीं मालूम कि एक अभिजात, सुशिक्षित पाठक की हैसियत से लोगों को ऐसे किसी गुरु की पढ़ाने की शैली प्रभावशाली लगेगी या हास्यास्पद। लेकिन मैं अपनी कहूं तो मेरा ‘सौभाग्य’ होता अगर बारहवीं कक्षा में गणित के मेरे धीर गंभीर अध्यापक ने ऐसे बिंबों का प्रयोग ऐसी टकसाली भाषा में करके समझाया होता कि यह इंटीग्रल कैलकुलसवा है क्या बला जो आज तक मेरे पल्ले नहीं पड़ी! कक्षाओं में जटिल प्रश्नों पर अध्यापकों की भाषा विद्यार्थियों के दिमाग में आसानी और रोचक तरीके से दाखिल होने लगे तो पता नहीं कितने पीछे रह जाने वाले बच्चे सबसे आगे की पंक्ति में दिखाई देने लगें।