के. विक्रम राव
कानपुर के ग्रीनपार्क स्टेडियम की ऐतिहासिकता रिशी बेनो के चले जाने से गहरा जाती है। लखनऊ के हम श्रमजीवी पत्रकारों के लिए कानपुर में 1959 के दिसंबर में कीर्तिमान रचने वाले इस अलबेले आस्ट्रेलियाई क्रिकेट कप्तान के जीवन की पारी पिछले दिनों समाप्त होना एक ऐसे मीडियाकर्मी का बिछुड़ना है, जिसने लोगों को अद्भुत विजय-मंत्र की दीक्षा दी थी। उनकी मान्यता थी कि पिट जाना, कतई हारना नहीं होता है। बल्कि जीत की ओर एक और कदम होता है। ग्रीनपार्क क्रिकेट स्टेडियम कभी गुलजार रहता था। अब चौपायों का चरागाह है। हालांकि प्रदेश के समाजवादी और क्रिकेट-प्रेमी मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि वहां विश्वस्तरीय मैच होंगे। यानी पुराने दिन बहुरेंगे। चूंकि वे प्रतिपक्ष में है, इसलिए शब्द ‘अच्छे दिन’ का प्रयोग नहीं किया!
बेनो के निधन से कानपुर का पचपन वर्ष पूर्व का दृश्य स्मृति-पटल पर उभर आता है। उन दिनों ग्रीनपार्क में भारत की आस्ट्रेलिया पर अभूतपूर्व जीत पर हजारों ताली बजाने वालों में लखनऊ विश्वविद्यालय के सहपाठियों के साथ मैं भी दीर्घा में था। तारीख थी शनिवार, 19 दिसंबर 1959। सर्द सुबह। कप्तान रिशी बेनो टास हार गए थे। भारतीय कप्तान जीएस रामचंद्र ने पहले बल्लेबाजी का निर्णय किया।
पांच दिवसीय टैस्ट मैच के प्रथम दिवस पर सूरज ढलने के पहले ही समूची भारतीय टीम आउट हो गई थी। सर्वाधिक पच्चीस रन आरजी नादकर्णी बना पाए थे। उनके बाद नारी कंट्रैक्टर और रामचंद्र चौबीस रन बना कर आउट हुए थे। हालत नाजुक थी। रिशी बेनो ने चार विकेट चटकाए थे। उनकी गुगली को खेलना दुष्कर था। जवाब में आस्ट्रेलिया ने दो सौ उन्नीस रन बनाए। भारत की दूसरी पारी में स्कोर दो सौ इक्यानबे पहुंचा। यानी आस्ट्रेलिया को जीतने के लिए सवा दो सौ रन चाहिए थे। रिशी आश्वस्त थे। पर उनके खिलाड़ी केवल एक सौ पांच रन ही जोड़ पाए। सफाया हो गया। भारत की बल्ले-बल्ले हो गई। तभी ग्रीनपार्क के ड्रेसिंग रूम में रिशी बेनो ने रामचंद्र को अपना ब्लेजर कोट भेंट किया।
कहा, यादगार जीत के लिए यह उपहार है। गेंदबाज जसू पटेल के लिए रिशी का विशेष प्रेम रहा। आखिर गेंदबाज ही गेंदबाज के गुण आंक सकता है। पटेल ने दोनों पारी में आस्ट्रेलिया के चौदह विकेट गिराए थे। बिना किसी खीझ और खिन्नता के बेनो ने संवाददाताओं से मुखातिब होकर कहा कि शिखर पर विराजी उनकी टीम को अनुभव हुआ कि अभ्यास कड़ा करना चाहिए था। भारत की युवा और ऊर्जावान टीम को उन्होंने हलके में लिया था। वे कमीज के ऊपर से तीन बटन सदा खुला रखते थे। कसरती सीने का उभार दिखता था। बांकपन का यह अंदाज होता है। हार कर उन्होंने बटन लगा लिए। भारतीय विजेताओं का सम्मान किया।
कानपुर से सटा हुआ शहर लखनऊ भी इस मैच के परिणाम से अभिभूत था। जसू पटेल सपरिवार चौक में चिकन जरदोजी आदि खरीदने आए। हजारों का माल लिया (तब एक रुपए में बीस सेर गेहूं मिलता था)। तभी चौक के कुछ युवकों ने पटेल को पहचान लिया। चीखे कि इसी व्यक्ति ने भारत को जिताया था, रिशी बेनो को हराया था। सारे दुकानदारों ने पटेल को रुपए वापस कर दिए। भारत के बेशकीमती गेंदबाज से कीमत लें! सामान उपहार में दे दिया।
कानपुर के बाद भी बेनो काफी समय तक खेले। उन्होंने क्रिकेट को अपना शरीर दान कर दिया। भुजाएं और पैर तो दे ही दिए थे। जीभ और आंखें भी बाद में दे दीं। चैनल नौ और सैकड़ों दैनिकों के लिए कमेंट्री और टिप्पणी भी देते रहे। सिडनी के दैनिक ‘द सन’ में पुलिस रिपोर्टिंग से अपना कॅरिअर शुरू करने वाले रिशी बेनो खेल और मीडिया के चरमोत्कर्ष तक पहुंचे। एक अमिट छवि छोड़ गए। त्वचा कैंसर से ग्रस्त बेनो चौरासी वर्ष तक जिए। मित्र उनसे शतक की कामना करते थे। उनका आकलन कितना सटीक था जब उन्होंने सचिन तेंदुलकर को डॉन ब्रैडमेन से भी बड़ा खिलाड़ी बताया। वे संकीर्ण राष्ट्रवाद से ऊपर थे।
रिशी बेनो के बारे में उनके प्रशंसक और निंदक जो भी कहें या सोचें, इतना तो तय है कि उनकी न उपेक्षा की जा सकती है और न उन्हें भुलाया जा सकता है। विश्व क्रिकेट के लंबे इतिहास में रिशी ने कोई अन्वेषण नहीं किया। इस पर उनके साथी कहते हैं कि रिशी ने (क्रिकेट रूपी) पहिए को न खोजा हो या उसका ढांचा न गढ़ा हो, पर उस पर रबड़ के टायर जरूर लगाए हैं, ताकि दूसरे को सहजता हो। वे हर बात ध्यान से सुनते थे। फिर सोचने के लिए उत्तेजित करते थे, बहस के सूत्रधार बनते थे। आम नहीं थे, अलग किस्म के व्यक्ति थे। अन्य टिप्पणीकारों का आदर होता है। रिशी से श्रोता प्यार करते थे। वे सुगम्य, सटीक, विश्वसनीय थे। उनका व्यंग्यबोध अनुपम था। जीते जी वे क्रिकेट जगत की उत्कृष्टता के निर्धारक मानक रहे। अब दिवंगत होकर वे प्रकाश-स्तंभ बन गए।
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