शोभना विज

पिछले दो-तीन महीनों से मुझे गूगल और सोशल मीडिया के मंचों को खंगालते रहने की बीमारी-सी लग गई है। शायद इसलिए कि इसमें देश के भीतर-बाहर से ‘आज की ताजा खबर’ विस्तृत विवरणों के साथ पढ़ने को मिल जाती है। चार अक्षर पढ़-लिख गए मेरे जैसे पुराने लोगों को यह सब अच्छा लगता है। नई शिक्षा, नई सोच और नई तबीयत वाली अपनी नई पीढ़ी की इस नई दुनिया में विचरण करना काफी रोमांचित भी करता है। लेकिन तकलीफ तब होती है जब विवरणों पर टिप्पणी पेश करने वाले हमारे वाग्वीरों के बीच कई बार तू-तू मैं-मैं का बेहूदा और बहुत ही शर्मनाक सिलसिला शुरू हो जाता है। खासकर यह सोच कर दुख होता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट की आधुनिक टेक्नोलॉजी से जुड़े हमारे ये वाग्वीर अनपढ़ भी नहीं हो सकते। तो फिर आपसी

मतभेद प्रकट करने की इनकी भाषा और शैली इस तरह सबसे निचले पायदान तक क्यों चली जाती है? धौंस, धमकी या फूहड़ मजाक, यहां तक भी ठीक है, पर जो वाक्य बुरी तरह आहत करता रहा है और हर बार जिसे जहर के घूंट की तरह निगलना पड़ा है, वह है- ‘गो टू पाकिस्तान’ यानी पाकिस्तान चले जाओ! हमारे कुछ देशभक्त वाग्वीरों का यह रवैया पिछले ढाई साल से चला आ रहा है।काफी पहले कहीं एक कविता पढ़ी थी। ठीक से याद नहीं कि कविता हिंदी में थी या पंजाबी में, पर कविता की आरंभिक पंक्तियां कुछ इस तरह थीं कि ‘यह देश तो है, पर यह मेरा वह देश नहीं है’। यानी अपना ही देश अचानक ‘अपना’ नहीं लगने की एक कसक-सी थी कविता में। यह हो सकता है कि समाज में तेजी से हो रहे बदलावों को बेचारा शायर सहजता से न ले पाया हो। ऐसा हर दौर में होता है। अपने आसपास आज भी ऐसे बहुत लोग मिल जाएंगे जो सरपट भागती हुई इस बेलगाम जिंदगी में खुद को अनफिट महसूस करते हैं और आमतौर पर दुखी रहते हैं। देश में अभी भी कुछ लोग बचे होंगे, जो भारत में अंग्रेजी हुकूमत की चर्चा ‘अच्छे दिन’ कह कर करते हैं। कुछ लोग ही क्यों, शिक्षा की स्थिति को ही लें तो देश का बहुत बड़ा वर्ग आज भी अंग्रेजों की विरासत को बड़े गर्व के साथ अपनाए हुए हैं।

मानवता को सर्वोत्तम धर्म मानने वाले ऐसे लोग भी अभी यहां मौजूद हैं, जिन्हें अपना देश वह पहला-सा गांधी-नेहरू वाला देश नहीं लग रहा। खुद मैं भी अक्सर यह सोचा करती हूं कि भारत-पाक-विभाजन और भारत-चीन युद्ध के दंश को न झेल सकने वाले गांधी और नेहरू जैसे संवेदनशील लोग अब कहां! यह आज का एक दुखद सत्य है कि कुछ तथाकथित देशभक्तों ने लाखों-करोड़ों देशवासियों को बड़ी अजीब और एक असहज-सी स्थिति में डाल दिया है। देश का आम नागरिक देश की मिट्टी और उसकी आबोहवा में घुली खुशबू को हर सांस के साथ अपने प्राणों में भरता है। फिर वे लोग कौन हैं जो उसकी किसी निराशा या किसी बात पर असहमति के कारण उसे इस तरह बेगाना होने का कटु अहसास कराने पर तुले हैं? वे शायद भूल जाते हैं कि दुनिया की कोई ताकत विचार को बंदी नहीं बना सकती।

सवाल यह है कि समाज की पढ़ी-लिखी जमात वाणी की गरिमा के प्रति इस हद तक बेपरवाह क्यों हुई जा रही है? अभिभावकों-शिक्षकों से सही मार्गदर्शन न मिलना या समाज का अस्त-व्यस्त परिवेश इसके कुछ कारण हो सकते हैं। मुझे लगता है कि इन सब कारणों के ऊपर एक बड़ा कारण और भी है और वह है देश का राजनीतिक माहौल, जिसके प्रभाव में युवा पीढ़ी के भीतर अकारण उत्तेजना और आक्रामकता के बीज बोए जा रहे हैं। अब असली पाठशाला परिवार या शिक्षण-संस्थाएं न होकर राजनीतिक परिवेश हो गया है, जहां से हमारे युवा दूसरे की खिल्ली उड़ाने या नीचा दिखाने के करतब सीखते हैं। यहीं से वे नाटकीय जुमलों, आरोपों-प्रत्यारोपों की शिक्षा ग्रहण करते हैं और पता नहीं क्यों, अपनी ऐसी उपलब्धियों पर गर्वित भी नजर आते हैं।

चलिए… जो भी अच्छा-बुरा सीख रहे हैं, उसे दूसरों तक पहुंचाने के लिए एक सीधी-सादी भाषा तो हर एक के पास होती है। पर ऐसा लगता है कि कुछ लोगों का सरोकार केवल बात से होता है, बात कहने के ढंग से नहीं। भीतर की भड़ास निकालने के लिए शब्दों के साथ खिलवाड़ आज एक आम बात हो गई है। शब्द के प्रयोग को गंभीरता से न लेने का ही परिणाम है कि गूगल जैसे व्यापक संचार माध्यम और सोशल मीडिया के मंचों पर अपने विचार रखने वालों की भाषा एक कबाड़ होकर रह गई है।