आजकल अक्सर मेरे पैर छिल जाते हैं। दरअसल, मैंने भाई के साथ अपनी स्कूटी से जाना शुरू किया है। अभी कुछ रोज ही हुए हैं इस बात को, जब वह पुरानी स्कूटी हमारे यहां नई बन कर आई थी। हालांकि दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण और जाम की समस्या की वजह से मैं निजी वाहन लेने के हक में बिल्कुल नहीं थी और घर में अन्य लोगों को भी सार्वजनिक वाहन ही प्रयोग करने पर बल देती थी। लेकिन पिताजी की गंभीर रूप से बिगड़ी तबियत के चलते मुझे अपने इस उसूल के साथ समझौता करना पड़ा। स्कूटी लिए तीन दिन ही हुए थे कि पिताजी चल बसे और अब यह स्कूटी मरणोपरांत दफ्तरी कार्यवाही की औपचारिकता के लिए इधर-उधर चक्कर काटने के काम आती है। इन्हीं चक्करों ने पैर छील दिए हैं मेरे। लोग सोचेंगे कि यह क्या बात है…! सड़क पर तो स्कूटी के पहिए घिसते हैं, उस पर बैठ कर जाने वाले व्यक्ति का इससे क्या काम!
दरअसल, मैं वजीराबाद में यमुना पर बने पुल से हर रोज निकलती हूं। यह पुल पूर्वी दिल्ली में बसे लाखों ‘यामुनापरियों’ के सपनों को उस पार बसी दिल्ली से जोड़ता है। लाखों सपने देखने वालों की संख्या भी लाखों में होती है और रोज सुबह लाखों की संख्या में लोग एक साथ सपनों की दौड़ में शामिल होते हैं। सड़क खचाखच भर जाती है। हर किसी को अपने सपने तक समय से पहुंचना है। फिर चाहे वह विद्यार्थी हो, रिश्तेदार, मजदूर, अधिकारी, कोई कामगार हो या फिर एक बीमार मरीज। सपनों तक समय पर पहुंचने की जल्दबाजी में संकरी सड़क पर सब एक दूसरे को धक्का देते हैं, कोई किसी को घसीटता चला जाता है तो कोई किसी के पैरों को कुचलता चला जाता है। हजारों लोगों का हुजूम है, तब भी एक बीमार मरीज सड़क पर फंसी एम्बुलेंस में मर जाता है और कोई मदद करने आगे नहीं आता। किसी की संवेदना नहीं पसीजती!
इस पुल पर लगभग रोज यह मंजर रहता है और कोई भी अधिकारी, प्रशासन, व्यवस्था, नेता, मीडियाकर्मी या खबरिया चैनल इस घटना का संज्ञान नहीं लेता। कैसी सुषुप्त अवस्था में हैं यहां के लोग जो रोज अपने सपनों को प्रशासन की कमियों के आगे छिलते हुए देखते हैं, पर किसी की चेतना नहीं जागती और न ही इस रोज की छीलन से लोग कराहते हैं। इस भागती जिंदगी में प्रशासन और लोगों की शायद संपूर्ण चेतना भी छिल गई है। गुड़गांव में एक दिन चार घंटे का जाम खबरों की सुर्खियों में छा जाता है और प्रशासन को हिला देता है, लेकिन वजीराबाद का हर रोज सुबह-शाम का तीन-चार घंटे का जाम किसी की चेतना का हिस्सा नहीं बनता! लोग रोज निकलते हैं, रोज फंसते हैं, रोज प्रशासन को कोसते हैं और घर चले जाते हैं। बस सब भागते रहते हैं लगातार। जैसे आजकल भाग रहे हैं बैंकों की तरफ और घंटों खड़े रहते हैं लाइनों में!
पूरे देश के साथ-साथ यह मंजर दिल्ली की भी ‘शोभा’ बना हुआ है आजकल। इसमें भी हम ‘यमुनापारियों’ का भारी कष्ट यह कि जब देश में हालात सामान्य थे, तब भी यहां के अधिकतर एटीएम में नकदी की समस्या रहती थी। लेकिन अब जब देश में विमुद्रीकरण का ‘अभियान’ चला हुआ है तो यह समस्या ज्यादा गंभीर हो चुकी है। जिस इलाके में मैं रहती हूं वहां मात्र दो ऐसे बैंक और एटीएम हैं, जहां नकदी उपलब्ध रहती है। लोग इस भारी अकाल को ध्यान में रखते हुए रात बारह बजे तो कभी ढाई बजे तक लाइनों में लगे रहने की बातें करते हैं। इसमें अपने आपको मैं थोड़ा सौभाग्यशाली समझ लेती हूं, क्योंकि मैं अपने काम के चलते दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर आती हूं, जहां एकाध एटीएम काम कर रहे होते हैं और दो-तीन घंटों के इंतजार के बाद कभी-कभी कुछ पैसे मिल जाते हैं। इस क्षेत्र को मिली विशेष सुविधा और मुझे मिली मेरे कुछ अच्छे मित्रों की सुविधा की वजह से ‘अच्छे दिनों’ के इस नोटबंदी के दौर में मेरे बहुत बुरे दिन नहीं आए। लेकिन सोचती हूं अपने उन पड़ोसियों के बारे में जिन्हें यह सौभाग्य प्राप्त नहीं, वे कैसे अपने ‘अच्छे-बुरे’ दिनों को बिता रहे होंगे!
बहरहाल, यह सब तो राजनीतिक प्रपंच है। इसका विश्लेषण मेरी सीमा से परे है, लेकिन एक बात ध्यान से नहीं उतरती। पापा का जब देहांत हुआ तो मुझे उनके लिए बहुत दुख हुआ था, जो एक सामान्य-सी बात है। मगर अपने पैसे के लिए लाइन में खड़े सौ से ज्यादा लोगों की मौत की खबरें सुनने के बाद अब लगता है कि ठीक ही हुआ कि वे संसार से चले गए, वरना चौवन साल की उम्र में अपनी ही तनख्वाह के लिए घंटों जाम में फंस कर बैंक की लाइन में लगना शायद वे सह नहीं कर पाते और एक अच्छे ‘यमुनापारी’ की तरह शाम को घर आते और सरकार को गलियां सुना कर थक कर सो जाते!