पिछले दिनों जब मैंने अपने गुरु से पूछा कि इस बीच आपने कौन-सी फिल्म देखी, तो मुस्कराते हुए उन्होंने कहा कि इन दिनों काफी अच्छी फिल्में बन रही हैं। फिर उन्होंने ‘अलीगढ़’ का जिक्र किया था। हिंदी सिनेमा जहां अस्सी के दशक के बॉलीवुड को काफी पीछे छोड़ चुका है, वहीं पिछले दशक में अन्य भारतीय भाषाओं में भी लगातार कई अच्छी फिल्में आई हैं। ऐसा नहीं कि बॉलीवुड में फार्मूलाबद्ध, मसाला फिल्में नहीं बन रही हैं। एक दर्शक वर्ग के लिए इन फिल्मों का अपना सांस्कृतिक-सामाजिक महत्त्व है। लेकिन पिछले दशक में कई नए निर्देशकों ने परंपरागत तौर पर फिल्मी कहानियों से इतर अपनी फिल्मों में भारतीय समाज के यथार्थ को नए सिरे से पकड़ने की कोशिश की है। एक तरह से इसे सत्तर के दशक में विकसित समांतर सिनेमा का विस्तार कहा जा सकता है। यह अनायास नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल आज के निर्देशक अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, गुरविंदर सिंह की प्रशंसा करते थे।

पच्चीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के साथ भूमंडलीकरण भारत में अपने पांव पसार रहा था, तब लोगों को इस बात की चिंता सता रही थी कि कहीं हॉलीवुड और बॉलीवुड का बाजार क्षेत्रीय फिल्मों के विकास को रोक न दे। लेकिन भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीक की उपलब्धता और सुगमता ने क्षेत्रीय फिल्मों को भी अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित होने का मौका दिया है। क्षेत्रीय सिनेमा ने स्थानीयता की धुरी पर मजबूती से खड़े होकर राष्ट्रीय-भूमंडलीय दर्शकों तक अपनी पहुंच बनाई है। इस बाबत विभिन्न शहरों में बने मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की भूमिका को भी रेखांकित किया जाना चाहिए।

साथ ही कुछ युवा निर्देशकों-कलाकारों की सृजनशीलता और जज्बा भी सराहनीय है। इन दिनों मराठी, पंजाबी, मलयालम, कन्नड़ आदि भाषाओं में बनी फिल्में राष्ट्रीय स्तर पर सराही जा रही हैं। पिछले वर्ष युवा निर्देशक चैतन्य ताम्हाणे की फिल्म ‘कोर्ट’ को भारत की ओर से आधिकारिक रूप से आॅस्कर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था। इसी तरह, 2011 में सलीम अहमद निर्देशित एक मलयाली फिल्म ‘एडामिंते माकन अबू’ (अबू, आदम का बच्चा) को भी आॅस्कर के लिए भेजा गया था। चर्चित लेखक गुरुदयाल सिंह की कहानी पर आधारित और गुरविंदर सिंह निर्देशित ‘अन्हे घोड़े दा दान’ को 2011 में बेहतरीन निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन और उसके दमन के इर्द-गिर्द रची गई गुरविंदर की फिल्म ‘चौथी कूट’ को इस बार भी पंजाबी भाषा में राष्ट्रीय पुररस्कार से सम्मानित किया गया।

यानी कि सिनेमा के परदे पर क्षेत्रीयता की ऐसी धमक मौजूद है, लेकिन लगता है कि दिल्ली की जनता को इन फिल्मों से कोई खास लेना-देना नहीं है। पिछले दिनों मैंने अनु मेनन निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह-कल्कि कोचलिन अभिनीत ‘वेटिंग’ फिल्म देखी। प्रेम, बिछोह, दर्द और इंतजार को लेकर दो पीढ़ियों की अपनी समझ-नासमझ को फिल्म में जीवंत बना दिया गया है। लेकिन एक मशहूर सिनेमा हॉल में पहले दिन इस फिल्म के एक शो में बमुश्किल पंद्रह लोग थे। इसी तरह राम रेड्डी की राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित चर्चित कन्नड़ फिल्म ‘तिथि’ को देखने के लिए एक शो में पच्चीस-तीस से ज्यादा दर्शक सिनेमा हॉल में मौजूद नहीं थे। जबकि कर्नाटक के एक गांव में केंद्रित कड़वे यथार्थ और हास्य बोध से भरी इस फिल्म की अंतरराष्ट्रीय जगत में भी खूब सराहना हुई है। बिना किसी स्टार के गैर पेशेवर कलाकारों ने जिस तरह से इस फिल्म में अभिनय किया है, वह किसी भी फिल्म के कला पक्ष पर विचार करने वाले समीक्षक को चौंकाता है। इसमें तो सेट, कैमरा, ध्वनि संयोजन वगैरह भी इस फिल्म को लीक से अलग ले जाकर खड़ा करता है। इसी तरह, अभी तक आर्थिक रूप से सबसे सफल मराठी फिल्म ‘सैराट’ की भी खूब चर्चा हुई। लेकिन दिल्ली में दर्शकों की पहुंच सीमित रही।

असल में पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में सिनेमा के प्रदर्शन, विवेचन-विश्लेषण की परंपरा में कमी आई है। युवाओं के बीच लीक से हट कर बन रही फिल्मों का प्रचार-प्रसार ज्यादा नहीं हो पाता है। गौरतलब है कि पिछले दशक में दिल्ली में ओसियान फिल्मोत्सव ने दर्शकों को देश-विदेश, क्षेत्रीय सिनेमा की अच्छी फिल्मों को देखने का एक मंच दिया था। मगर 2008 में आई आर्थिक मंदी का असर इस समारोह पर भी पड़ा और इसे बंद करना पड़ा। मैंने 2005 में पहली मराठी फिल्म ‘श्वास’ देखी थी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। ‘श्वास’ को 2004 में आॅस्कर के लिए भी भारत की ओर से नामांकित किया गया था। इस तमाम क्षेत्रीय सिनेमा की सिनेमाई भाषा काफी अलहदा है। ये फिल्में अपने कथ्य और कहन में साफगोई और सहजता के लिए जानी जाती है। चिंता की बात यह है कि अगर इन फिल्मों की पहुंच एक बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं हुई, तो कहीं वे अपने उद्देश्य में समांतर सिनेमा की तरह ही पिछड़ न जाएं!

(अरविंद दास)