सुभाष चंद्र कुशवाहा

बरसाती दिनों के सिमटने के बावजूद हमारे शहर पानी-पानी हो रहे हैं। मुंबई जलभराव के समाचार सुर्खियों में इसलिए आ जाते हैं कि वहां की धड़कन कही जाने वाली लोकल ट्रेनें ठहर जाती हैं। घर से काम पर गए लोग समय पर लौट नहीं पाते। दूसरे महानगरों की स्थिति भी कमाबेश वैसी ही है। जलभराव का आलम दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता तक ही नहीं है, पुणे, बंगलुरु, जयपुर, बरेली, गोरखपुर, उज्जैन, लखनऊ जैसे नगरों या महानगरों में देखा जा सकता है। बरसात हुई नहीं कि शहर की सड़कें नदियों में बदल जाती हैं। रेल की पटरियों पर और बस्तियों में पानी भर जाता है। शहर का आवागमन ठप हो जाता है। इस बार तो कई हवाई अड्डों पर पानी भरने का समाचार सुनने को मिला। यह स्थिति तब है, जब पहले की तरह बरसात नहीं हो रही।

हर शहर की साफ-सफाई और पानी निकासी व्यवस्था की जिम्मेदारी नगरपालिकाओं या नगर निगमों के हवाले है। हमारे महानगरों की सीवर व्यवस्था ब्रिटिश कालीन है। शहरों के फैलाव की तुलना में सीवरों का फैलाव हुआ नहीं। यही कारण है कि बहुत थोड़ी सी शहरी आबादी को सीवर व्यवस्था का लाभ मिल पाता है। यह जानकर हमें हैरानी होती है कि मुंबई जैसे महानगर में 1971 में ‘वाटर सप्लाई एंड सीवरेज डिपार्टमेंट’ की स्थापना हुई थी। यानी कि 1971 तक मुबई में मात्र उतनी ही सीवर लाइनें थीं, जितनी ब्रिटिश सरकार बना कर गई थी। अब भी देश के चार या पांच महानगरों में महज पचपन से साठ प्रतिशत शहरी आबादी को सीवर व्यवस्था का लाभ मिल पा रहा है। छोटे नगरों की स्थिति तो और भी खराब है। वहां सड़कों के किनारे सामान्य नालियां तक नहीं हैं। कहीं बनी भी हैं तो वे कूड़े से भरी पड़ी हैं या मुख्य नालों से जुड़ी नहीं हैं। सीवर व्यवस्था के अभाव के अलावा अन्य दूसरे कारण भी हैं जो शहरों में बरसाती पानी की निकासी रोक रहे हैं। पहला तो यही कि जमीन खाली रहने पर बरसाती पानी अपने बहाव का रास्ता, जमीन की ऊंची-नीची संरचना के हिसाब से अपने आप बना लेता था। बरसाती पानी का बहाव धरती की प्राकृतिक बनावट के हिसाब से पहले से निर्धारित रहा है। झीलें, तालाब और प्राकृतिक नाले उसी निर्धारण की देन हैं।

शहरी विकास और जनसंख्या दबाव के कारण तेजी से मकानों और कॉलोनियों का निर्माण हुआ है। बिना वैज्ञानिक और प्राकृतिक सोच के मकानों और कॉलोनियों के नक्शे स्वीकृत हुए हैं जो आज बरसाती पानी के बहाव को रोक रहे हैं। शहरों के छोटे-बड़े नालों, झीलों या नदियों के तटों का फैलाव ढालनुमा होने के कारण बरसाती पानी को अपने तक खींच लेता था। अब ये तट और किनारे लगभग निगल लिए गए हैं। वहां कंक्रीट के जंगल उग आए हैं। आधुनिक दौर में बनी कॉलोनियों में बरसाती पानी के निकास की नालियों की संरचना उतनी भी वैज्ञानिक नहीं है जितनी सिंधु घाटी सभ्यता में पढ़ने को मिलती है। पहले बरसात का पानी नदी-नालों में जाने के पूर्व झीलों और तालाबों में जाता था। लगभग सभी शहरों के अंदर और आसपास के झील और तालाब पाट कर मकान बना लिए गए हैं। यह तब भी हुआ है जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में कई बार दिशा-निर्देश जारी किए हुए हैं। शहरों के आसपास की झीलें सिर्फ बरसाती पानी को अपने अंदर नहीं समेटती थीं, बल्कि पानी को अपने अंदर लेकर जमीन के अंदर पहुंचाती थीं। प्राकृतिक रूप से वर्षा जल हार्वेस्टिंग का काम वे करती थीं।

शहरी नालों और नालियों के लिए एक गंभीर समस्या पॉलिथीन ने पैदा कर दी है। हमारे यहां साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था महज प्रतीकात्मक है। पॉलिथीन का प्रयोग आम है। विदेशों की तुलना में हमारे शहर बेहद गंदे और कूड़ों के ढेर बन चुके हैं। नालों और सीवरों को पॉलिथीन का कचरा जाम किए हुए है। उनको साफ करने की समुचित व्यवस्था नहीं है। वैज्ञानिक तकनीकी का अभाव है। अभी भी नालों और सीवर की सफाई अकसर हाथ से कराई जाती है जो न केवल अपर्याप्त है, बल्कि अमानवीय भी है। ऐसे में बरसात का पानी जाए तो जाए कहां! देश के ज्यादातर शहरों की अस्सी प्रतिशत आबादी जलभराव की समस्या से जूझ रही है। सड़कों और रेल की पटरियों के पानी में डूबने से साठ प्रतिशत से अधिक कामकाजी लोग प्रभावित हो रहे हैं। खोदी गई सड़कें और खुले मैनहोल दुर्घटना के कारण बन रहे हैं। पानी भरने से सड़कें टूट जाती हैं। उनमें गड्ढे बनते हैं और हर बरसात के बाद उन्हें ठीक करने में करोड़ों खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार हमारी अवैज्ञानिक सोच और गलत नियोजन के कारण जलभराव हमारी उत्पादकता को घटा रहा है। समूचा नगरीय प्रबंध ध्वस्त हो रहा है। जरूरत इस बात की है कि हम अपने शहरी नियोजन की रूपरेखा भविष्य की आवश्यकता और प्राकृतिक जल बहाव को अवरुद्ध किए बिना तैयार करें। तभी हम अपने शहरों को रहने लायक बना पाएंगे।