अब ये रोजमर्रा की खबरें हो चुकी हैं और रोज न जाने कितने लोग सड़कों पर लाचार खड़े ताकते रह जाते हैं। यह कब किसके साथ होगा, कहा नहीं जा सकता। कुछ दिन पहले मेरे साथ भी यही हो गया। जब तक मैं समझूं कि क्या हुआ, मेरा पर्स बगल से निकली मोटर साइकिल पर पीछे बैठा लड़का झपट चुका था। उसका हाथ कब ऑटो रिक्शा के अंदर आया और पर्स मेरी बाजू में से निकल कर उसके कंधे पर लटक गया, पता ही नहीं चला। इससे पहले कि मैं चिल्लाती- ‘पकड़ो-पकड़ो पर्स ले गए’, वे आंखों से ओझल हो चुके थे। मुझे ट्रेन पकड़ने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन जाना था। लेकिन आजकल टिकट मोबाइल यानी स्मार्टफोन में ही रहता है और फोन पर्स में था। आधार, पैन, प्रेस, एटीएम कार्ड और घर की चाबियां तक, सभी कुछ उस पर्स में ही था।
पहले तो कभी घर-बाहर के कुछ फोन नंबर याद रहते थे, पर अब तो सब कुछ मोबाइल की ही ‘मेमोरी’ में रहता है। यानी मेरा बैंक खाता और घर दोनों ही असुरक्षित था। जैसे ही इस स्थिति के बारे में बात दिमाग में आई, मेरी चिंता बढ़ गई। लगा कि जो गया है, अगले दस मिनट में ही उससे कहीं ज्यादा जा सकता है। मोबाइल में पेटीएम है और पर्स में एटीएम। किसी का नंबर याद नहीं होने की वजह से ऑटो रिक्शा के ड्राइवर के फोन से भी किसी को फोन करके बैंक को सूचित करने के लिए नहीं कह सकती थी। स्टेशन पर जाने के लिए ‘उबर’ इसलिए नहीं बुला पाई थी कि इंटरनेट काम नहीं कर रहा था। सुना है कि संचार कंपनियां ‘फोर-जी’ की सेवाएं दे रही हैं। इंटरनेट और नेटवर्क के रोज आधुनिक होने का दावा किया जा रहा है। मैं एकदम बेबस और लाचार महसूस कर रही थी। अब मुझे पर्स नहीं, अपना बैंक खाता खाली होता दिखाई दे रहा था। मैंने तुरंत ऑटो वाले को रास्ता बदलने कहा और सीधे बैंक पहुंच कर अपना कार्ड बंद करवाया। मैं दिल्ली में थी तो तुरंत बैंक पहुंच गई और अपना खाता बचा लिया। लेकिन यह बात दिमाग से निकल नहीं रही कि अगर मैं इसी हालत में दिल्ली से बाहर या किसी ऐसी जगह होती, जहां से बैंक तक पहुंच नहीं बनाई जा सकती थी तो क्या होता! अनुभव बताता है कि ग्राहक सेवा के नंबर पर बैठे व्यक्ति से सामान्य हालात में भी एक ही बार में संपर्क हो जाए, यह जरूरी नहीं। इससे इतर, ऑटो ड्राइवर के फोन से पुलिस को बुलाने के लिए सौ नंबर डायल किया, लेकिन तीन चार-बार की कोशिश नाकाम गई। आखिर खातों को सुरक्षित कर लेने के बाद सौ नंबर पर शिकायत दर्ज करते हुए पुलिस को यह भी बताया कि मेरे मोबाइल नंबर पर अभी भी घंटी बज रही है, आप उसकी जगह तो पता कर सकते हैं। रात के डेढ़ बजे तक मोबाइल चलता रहा, पर पुलिस उसके किसी खास जगह पर होने के बारे में पता नहीं कर पाई।
नंबर को निगरानी पर दूसरे दिन शाम तक लगाया जा सका, क्योंकि इसके लिए कानूनी प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी करनी पड़ती है। लेकिन अगर पुलिस सहयोगी की भूमिका में हो तो कई मुश्किलें आसान हो जा सकती है। यानी किसी के इस लाचार हालत में पहुंच जाने के बावजूद हमारा समूचा तंत्र उसे और परेशान करने के लिए तैयार खड़ा होता है। दिल्ली में महिला सुरक्षा के नाम पर सीसीटीवी कैमरों की बात सभी पार्टियां करती हैं। लेकिन उस रोज जान कर हैरानी हुई कि मुझे सड़क पर जहां-जहां से गुजरना पड़ा था, उस पूरे रास्ते में एक भी सीसीटीवी कैमरा नहीं है। अक्षरधाम पुल के आसपास अक्सर लूटपाट की घटनाएं होती रहती हैं। इन और ऐसी जगहों पर कैमरे लगाने और पुलिस की तैनाती जरूरी है। लेकिन शायद यह प्राथमिकता में नहीं है।
दरअसल, हमारी असुरक्षित सड़कें, इंटरनेट सेवाएं, बैंकों का लचर बुनियादी ढांचा, ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक सहज सुविधाओं का अभाव- यह सब कुछ मिल कर आम लोगों को कैसे लाचार बना रहा है, यह किसी से छिपा नहीं हैं। ‘कैशलेस’ के आधुनिक नारे के बीच घर से पैसे लेकर निकलने के बाद व्यक्ति कहां ‘कैशलेस’ हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले दिल्ली में ही हर महीने इस तरह की लूटपाट की सैकड़ों घटनाएं होती हैं। पुलिस की सक्रियता का आलम यह है कि सड़क के झपटमारों को किसी का सामान झपट कर भाग जाने से पहले शायद ही कभी पुलिस और कानून का खौफ होता हो। ऐसी घटना के पीड़ित के बुलाने पर पुलिसकर्मी मिलते हैं, तब भी पीड़ितों के प्रति सहयोग के मामले में उनका जो व्यवहार होता है, वह हैरान करता है। यह बुनियादी बात भी ध्यान रखने की जरूरत नहीं समझी जाती कि लूटपाट या कोई दुर्घटना हो जाने पर किस तरह के सहयोग प्राथमिक होते हैं। हालांकि यह सामान्य संवेदनशीलता की मांग है, लेकिन यह पुलिस का दायित्व भी होना चाहिए।