दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के रूप में मेट्रो की अहमियत किसी से छिपी नहीं है। खासतौर पर महिलाओं के लिए यह बेहद राहत भरा साबित हुआ है। कुछ समय पहले मेट्रो के किराए में भारी बढ़ोतरी के बाद काफी लोगों ने सार्वजनिक बसों का सहारा लेना शुरू कर दिया। लेकिन आज भी व्यस्त समय में बहुत सारे लोगों के लिए महंगी मेट्रो मजबूरी का साधन है। उस दिन मेट्रो के सामान्य डिब्बे में भीड़ बहुत ज्यादा नहीं थी। लेकिन कुछ लोगों की फितरत उनसे नहीं छूटती। मुझसे थोड़ी दूर खड़े पुरुष से वहीं खड़ी महिला ने धीमी आवाज में ही एक पुरुष से कहा था कि थोड़ा हट कर खड़े हो जाइए। पुरुष ने तल्खी से जवाब दिया- ‘महिला कोच में चली जाओ!’ महिला चुप रह गई। लेकिन कुछ मिनट के बाद फिर उसने तेज स्वर में वही दोहराया कि आप कृपया थोड़ा हट कर खड़े हो जाएं और परेशान करने की कोशिश न करें। पुरुष ने फिर उस महिला को वही जवाब दिया। इसके बाद महिला ने कहा- ‘आप बार-बार लेडीज कोच में जाने के लिए कह रहे हैं। आपको पता होना चाहिए कि यह सामान्य कोच है और इसमें कोई भी सफर कर सकता है… पुरुष या महिला भी। इसमें किसी को महिलाओं को धक्का देने का अधिकार नहीं मिला हुआ है। लोगों को सभ्य होना चाहिए। इसमें भी महिलाओं के लिए रिजर्व सीटें लोग छोड़ नहीं रहे हैं, वह आपको नहीं दिखता।’
इसके बाद एक अन्य पुरुष ने भी महिला को तंज भरे स्वर में कहा कि महिला कोच में चली जाओ। फिर तीसरे और चौथे पुरुष ने उसी में सुर मिलाया कि ज्यादा दिक्कत है तो अपनी गाड़ी से जाया करो। लेकिन एक पुरुष ने दबे स्वर में कहा कि आप लोग एक जगह स्थिर से तो खड़े हो ही सकते हैं, तो दो दबंग जैसे दिखने वाले पुरुषों ने उसे डांट कर चुप करा दिया। इसके बाद मैंने भी हिम्मत की कि यह महिला सिर्फ परेशान नहीं करने के लिए कह रही है तो इसमें क्या गलत लग रहा है आप लोगों को… क्या आप लोग अपने परिवार की किसी महिला के साथ ऐसा ही होते देखना चाहेंगे? मेरे पास खड़े व्यक्ति ने जिस अंदाज में मुझे डांटा, मैं थोड़ा सहम गया। अगले स्टेशन पर वह महिला उतर गई। पता नहीं, उसे वहीं उतरना था या वह परेशानी और मजबूरी में वहां उतर गई!
यह महज एक उदाहरण है कि सार्वजनिक जगहों पर पितृसत्ता सामान्य सामाजिक व्यवहार के जरिए कैसे स्त्रियों पर नियंत्रण कायम रखती है। कहने को देश में महिलाओं के लिए ‘आधी आबादी’ का प्रयोग किया जाता है। लेकिन जहां उनका अधिकार किसी तरह तय हो सका है, उन्हें वहां से भी वंचित रखने की कोशिश की जाती है। इसके लिए पुरुषों को अलग से सोचना नहीं पड़ता है। उनके व्यवहार में मानो सब कुछ पूर्वनियोजित बातें और सोच घुली हुई हैं। यह समझना मुश्किल है कि देश में ‘सामान्य’ सीटों या डिब्बे का यह आसान मतलब लोगों को क्यों नहीं समझ में आता है कि वह सबके लिए है। जिन्हें ‘आरक्षित वर्ग’ के तहत देखा-माना जाता है, उनके लिए भी।
मेट्रो की उस घटना को मैंने अपने एक मित्र से साझा किया। उसकी बातों से मैं सहमत था कि महिलाओं के प्रति पुरुषों का यह व्यवहार दरअसल सामाजिक सत्ता का मामला है। जिस भी संदर्भ से बराबरी की बात उठेगी, वहां एक औसत पुरुष ऐसा ही बर्ताव करेगा। महिलाओं के हक में कुछ कानून बनने से लोगों में भय जरूर पैदा हुआ है, लेकिन सच यह है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा, अभद्रता, बलात्कार, यौन हिंसा आदि घटनाएं रुकी नहीं है। पहले ग्रामीण इलाकों में सामंती प्रवृत्ति के लोग सरेआम वंचित तबकों की महिलाओं के खिलाफ हिंसा करते थे, अब उसकी शक्ल बदल गई है। कुछ समय पहले दो ऐसी घटनाएं दिल्ली जैसे महानगर में सामने आर्इं, जिनमें सार्वजनिक बस में दर्जनों यात्रियों के बीच किसी पुरुष ने महिला को देख कर अश्लील हरकत की और बाकी लोग मूकदर्शक रहे।
यह सही है कि कई मौकों पर जोखिम भी होते हैं। लेकिन सवाल है कि आपराधिक बर्ताव बर्दाश्त करने की सीमा क्या हो! दलित महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपना अनुभव सुनाया था। दिल्ली में ब्लूलाइन बसें चलने के दौर में वे जब एक बस में सवार हुर्इं तो महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर दो लड़के बैठे थे। उस सामाजिक कार्यकर्ता ने उनसे सीट से उठने का निवेदन किया। उन लड़कों ने कहा कि क्यों सीट दे दें… कहां लिखा है! इस पर महिला उन लड़कों को ऊपर लिखा हुआ दिखाया। लड़कों ने जवाब दिया कि वहीं जाकर बैठ जा। इतना सुनते ही महिला ने लड़के के कान पर दो तमाचे जड़ दिए। बस में सन्नाटा छा गया। ड्राइवर ने बस रोक दी। लड़के को उठाया और महिला सीट पर बैठ गर्इं। पीछे से कुछ पुरुषों ने कहा कि लड़की होकर गुंडागर्दी करती है, तो महिला ने पीछे मुड़ कर कहा- ‘कौन बोल रहा है? सामने आ, तुझे भी बताऊं!’ इसके बाद सब शांत हो गए। बस में खड़ी बाकी सभी महिलाओं के चेहरे पर खुशी थी।