अब बुढ़ापे की दहलीज लांघ चुका विमान चालकों और दिशा-निर्देशकों (नेवीगेटर्स) का हमारा बैच पूरे तिरपन वर्ष पहले कमीशन पाकर वायुसेना से जुड़ा था। आधी सदी के इस अंतराल में कई मित्र साथ छोड़ कर जा चुके हैं। पैरों में पंख बांध कर आकाश छूने वालों को हवाई दुर्घटनाओं की संभावना भयभीत नहीं करती, न ही मृत्यु से उनके साक्षात्कार के लिए किसी युद्ध का होना अनिवार्य होता है। पाकिस्तान के साथ सन 1965 से अब तक हुए युद्धों में हमें जितने मित्रों को अलविदा कहना पड़ा है, लगभग उतने ही हवाई दुर्घटनाओं के शिकार हो चुके हैं। उनके अतिरिक्त असाध्य रोग भी कइयों को लील गए। ऐसे में वायुसेना से जुड़ने की स्वर्ण जयंती मना चुके हम बचे-खुचे मित्रगण साल में कम से कम एक बार अवश्य ही इकट्ठा हो लेते हैं- अपने सुख-दुख बांटने और उन स्वर्णिम दिनों की याद को हंस-गाकर ताजा कर लेने के लिए, जब आकाश को छूकर प्रदीप्त हो जाने का वायुसेना का आदर्श वाक्य (मोटो) हमारा मार्गदर्शक सितारा था। हीरक जयंती आने तक हम हों न हों, इसलिए इस दिन को हम बोनस जयंती कहने लगे हैं।
कुछ दिन पहले हम ऐसी ही एक ‘बोनस जयंती’ मनाने के लिए सपत्नीक इकट्ठा हुए थे। लंबे अंतराल के बाद मिले मित्र एक दूसरे को ‘जादू की झप्पी’ में जकड़ने के साथ-साथ एक दूसरे की गंजी होती खोपड़ी और पेट पर चढ़ती चर्बी की परतों को लेकर तंज कसने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। मित्रों की पत्नियों से बातचीत भी औपचारिकता की घुटन से मुक्त थी। हम आपस में पूरी सहजता से बातचीत कर रहे थे और एक दूसरे पर हंस रहे थे। उपस्थित मित्रों में से कुछ विधुर भी थे, लेकिन उनके सीनों में धड़कते फौजी दिल उनके सूनेपन को आंखों में उदासी बन कर उतरने नहीं दे रहे थे। आरंभिक धौल-धप्पे के बाद हम एक दूसरे के सुख-दुख की गहरी परतों में उतरे तो सेवानिवृत्ति के बाद दिन कैसे गुजारते थे, बातचीत का आम विषय बन गया। ऐसे में कुछ मित्र निष्क्रियता के बोझ तले दबे नजर आए। उन्हें टीवी चैनलों की कानफोड़ू बहसें, बचकाने धारावाहिकों, बोझिल विज्ञापनों, हत्या, बलात्कार और राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों से शिकायत थी। नई फिल्में उन्हें भाती नहीं थीं और पुरानी फिल्में भूली-बिसरी दास्तान थीं। पढ़ने में नजर की कमजोरी और पर्यटन में दुखती कमर और घुटने आड़े आते थे। बच्चों को अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के आगे किसी की फिक्र नहीं थी। जिनके बच्चे विदेशों में थे, वे भारत में अकेलापन झेल रहे थे या विदेश में बच्चों के पास पराधीनता का स्वाद चख कर वापस आ गए थे। कुल मिला कर उनके जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं था जो जीवन को जीने योग्य बनाता।
ऐसे में दो मित्रों के उत्तर बंद गली में ताजी बयार के झोंके जैसे लगे। परिवहन विमानों में हजारों घंटों की उड़ानें नेवीगेटर की हैसियत से भरने वाले विंग कमांडर सुरेंद्र सूद के घुटने जवाब दे रहे हैं। लेकिन इसी दर्द ने उन्हें एक नई राह पर चलना सिखा दिया। जब दवाइयों से निदान नहीं हुआ तो उन्होंने नोएडा में सेवानिवृत्त एयरवाइस मार्शल अदलखा और फ्लाइट लेफ्टिनेंट अजीत सिंह द्वारा चलाए जा रहे एक एक्युप्रेशर चिकित्सा केंद्र की निशुल्क चिकित्सा का लाभ उठाया, फिर स्वयं एक्युप्रेशर और हाथ की मालिश से उपचार करना सीखा। अब वे नियमित रूप से इस चिकित्सा केंद्र में रोज-तीन चार घंटे तक निशुल्क सेवा करके दूसरों के दर्द मिटाने में जुटे हुए हैं।
एक और दोस्त हैं 1971 के युद्ध में कैनबरा बमवर्षक विमानों से पाकिस्तान के एक बड़े पेट्रोलियम भंडार को नेस्तनाबूद करके वीरचक्र से सम्मानित होने वाले विंग कमांडर योगेंद्र प्रताप सिंह। उनकी पत्नी अल्जाइमर जैसी बीमारी का शिकार बन कर अपनी यादाश्त और सुधबुध खो बैठीं और असमय में काल का ग्रास बन गर्इं। भरसक उपचार और सेवा के बावजूद पत्नी को न बचा पाने का दारुण दुख अब वे अल्जाइमर रोगियों के कल्याण में जुटी एक संस्था से जुड़ कर कम करते हैं। वे खुद डॉक्टर नहीं हैं, लेकिन पत्नी की देखभाल के लिए जो निर्देश उन्हें मिले थे, उन्हें वे अब ऐसे अल्पशिक्षित निर्धन परिवारों में जाकर बताते हैं जो अज्ञानवश इस बीमारी का इलाज झाड़-फूंक में खोजते हैं या रोगी को मानसिक रोगी समझने की भूल करते हैं। हम सब इस बात से शायद अनजान नहीं होंगे कि बीमारी की हालत में झाड़-फूंक के चक्कर में कितने ही ऐसे लोगों की जान चली जाती है, जो किसी डॉक्टर के इलाज से आसानी से ठीक हो सकते थे।
उस ‘बोनस जयंती’ के मौके पर हमने एक गीत बड़े उल्लास से समवेत स्वर में गाया, जिसके बोल थे ‘आया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का।’ लेकिन उस खूबसूरत शाम को याद करता हूं तो जावेद अनवर का लिखा एक गीत कानों में गूंजता है- ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए, बुझते दिए जलाने के लिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए!’