जया निगम
सामूहिक बातचीत के अच्छे दौर को याद करके हम कई बार अफसोस जताते हैं। लेकिन सच यह है कि वक्त के साथ डिजिटल होती दुनिया में उस बातचीत का स्वरूप भी बदला है। दरअसल, सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर मौजूद लोग मेरे लिए डिजिटल चौराहों के गली-नुक्कड़ों में लगने वाली चौपालों जैसे हैं। ये कुछ वैसा है जैसे हम अपने घर के बाहर चारपाई डाल कर या कुर्सी लगा कर बैठ जाएं और मोहल्ले वालों और रिश्तेदारों की परवाह किए बगैर या उनके साथ भी यार-दोस्तों से खुल कर दुनिया भर की गपशप करते हुए बिताते हैं।हमारे देश में सार्वजनिक जगहों पर लगने वाली ये चौपालें अनिवार्य रूप से लैंगिक खांचों और स्त्री-पुरुष की बैठकों के अलग-अलग समय के अंतराल में विभाजित रहती हैं। मगर डिजिटल दुनिया में तकनीक इस तरह की खाइयों को पाट देती है। मसलन, वास्तविक जीवन में रात नौ बजे के बाद किसी स्त्री का अपने मोहल्ले की नुक्कड़ वाली दुकान पर अपने दोस्तों के साथ ‘माया मेमसाहब’ या ‘उत्सव’ फिल्म पर चर्चा करना सनसनीखेज हो सकता है और शहरी औरतों को भी इसके लिए हिम्मत करने में पसीने छूट सकते हैं। लेकिन डिजिटल दुनिया में हमारी सबसे शांत और पढ़ाकू पड़ोसन भी एकदम बेहिचक और बिंदास दिख सकती है। यह भी हो सकता है कि अपने घर की बैठक में चाय तक नहीं परोसने की इजाजत पाने वाली किसी महिला का प्रोफाइल या परिचय सबके देखने के लिए हो। लेकिन इसका मतलब क्या है? दरअसल, आपने जिन बंधनों की दुनिया को वास्तविक जिंदगी में सामाजिक मान्यताओं के रूप में दलित और शोषित वर्गों पर लाद रखा है, तकनीक की दुनिया में वे इसका प्रतिकार कर सकते हैं। औरतों का प्रोफाइल सार्वजनिक होना, दीन-दुनिया के प्रति उनका उदार होना वास्तव में लोगों से घुलने-मिलने की चाह लिए हुए होना होता है। यह लगभग वैसा है जैसे आप रोज सुबह-शाम अपने काम-धंधे के लिए घर से बाहर निकलते हैं। कामकाजी औरतों, घर की छत और खिड़की पर हंसी-मजाक करने वाली, सुबह शाम हाट-बाजार करने वाली, पार्क, सिनेमा हॉल, पब-थियेटर जानी वाली औरतों को देखते हैं। अगर आपका दिमाग इसे ‘औरतों की उपलब्धता’ के रूप देखता और समझता है तो इसे अपनी सीमाओं की वजह से आप सही ठहरा सकते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि ‘नहीं’ करने वाली औरतों को आपका दिमाग स्वीकार नहीं करता। क्यों?
यह मानसिकता आखिर कहां से आती है? क्या गांव-कस्बों और शहरों में महिलाओं की बैठकों में कभी आपका आना-जाना, घुलना-मिलना नहीं हुआ? उनके कहकहे, हंसी-ठहाके, हाजिरजवाबी-चुहलबाजी, शरारतें देख कर आपको लगता है कि यह सब कुछ केवल पुरुषों का ध्यान आकर्षित करने के लिए हो रहा है। अगर किसी को ऐसा लगता है तो उसे अपने दिमाग को थोड़ा फिर से चलाना शुरू करना चाहिए! यथार्थ और आभासी के बीच मौजूद सामाजिक जगह में वाकई अनंत संभावनाएं हैं और खतरे भी। दोनों ही तरह की दुनिया हमारे देश में अब उजागर हो चुकी है। सार्वजनिक बनाम निजी की बहस केवल कॉरपोरेट जगत तक महदूद नहीं है। बल्कि सदियों से जिनका शोषण हुआ है, उनके लिए अब भी निजी जीवन से बाहर निकल कर सार्वजनिक दुनिया में प्रवेश निषेध रखा गया है। लेकिन डिजिटल दुनिया के फायदे-नुकसान, खतरे-संभावनाओं, शोषण-प्रतिकार के रास्तों का लोकतंत्र के साथ सामंजस्य होना शुरू हो गया है। राजनीतिक प्रचार से लेकर यौन उत्पीड़न तक डिजिटल गली-मोहल्लों में संभव दिखाई दे रहा है तो उसका प्रतिकार करने, उसको चुनौती देने, उसकी जिम्मेदारी लेने की और इन सबके मूल में मौजूद आर्थिक विषमता, पहुंच जैसे बुनियादी मुद्दों को पहचान कर इनको संबोधित करने की कोशिशें भी हो रही हैं।
‘डिजिटल हिफाजत’, ‘मेरी रात-मेरी सड़क’, सेनेटरी पैड आदि को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए की गई निजी पहलकदमी डिजिटल दुनिया को ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए खोलने और उन तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए की जा रही ईमानदार कोशिशें हैं। इसने इंटरनेट पर और उससे बाहर होने वाली बहसों को साथ लाकर उनसे उपजी समस्याओं के हल ढूंढ़ने की स्थितियां बनाई हैं। यों तो हर माध्यम का नयापन अपने साथ एक खतरे को जन्म देता है, लेकिन उसके इस्तेमाल के साथ हम पहले से ज्यादा परिपक्व हो जाते हैं। डिजिटल दुनिया का सोशल मीडिया हमें वैसे ही चौक-चौराहे उपलब्ध करा रहा है। स्त्रीवाद, यौनिकता, नवीन प्रौद्योगिकी समाज में अर्थशास्त्र बदलने से पैदा हुई नई बहसें हैं जो यकीनन पुरानी बहसों यानी जाति, धर्म, लिंग, नस्ल और आर्थिक पहचानों के साथ जब्त-खब्त होकर नए रंग-रूप में हमारे सामने आ रही हैं। हमें यह याद रखने की जरूरत है कि हर माध्यम पर राज्य का नियंत्रण होता है, उसका एक कार्यकारी ढांचा होता है जो राजनीतिक और सांगठनिक स्तर पर समाज के अंदर अस्तित्व रखता है। भले ही इंटरनेट का दायरा देशों की सीमाओं को पार करता है, लेकिन देशों की सरहदें डिजिटल दुनिया में भी अपने पुराने नियम-कायदे-कानूनों के साथ ही काम करती हैं। एक जिम्मेदार नागरिक ही डिजिटल दुनिया में अपने देश की सरकार को सार्वजनिक हित में काम करने और जवाबदेही तय करने की भूमिका निभा सकता है।