हाल ही में एक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य विभिन्न विषयों के अंतर्गत सतत और व्यापक मूल्यांकन की अवधारणा को समझना था। समूह को प्रशिक्षण देने वाले ‘रिसोर्स पर्सन’ यानी संदर्भ-व्यक्ति एक कुशल प्रशिक्षक थे। वे अपने विद्यालयी अनुभवों से जोड़ते हुए शिक्षकों के सामने अपनी बात रख रहे थे। शिक्षक उनकी बात को ध्यान से सुनते हुए प्रश्नों के माध्यम से भागीदारी कर रहे थे। प्रशिक्षक चूंकि शिक्षकों के प्रश्नों का उत्तर विद्यालयों के उदाहरणों से जोड़ते हुए दे रहे थे, इसलिए शिक्षक उनसे आसानी से जुड़ पा रहे थे। सत्र के अंत में समूह से एक शिक्षक ने प्रशिक्षक की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘सर, आप बहुत अच्छा समझाते हैं। आपकी हर बात आसानी से समझ में आती है। आपके समझाने का तरीका बहुत रोचक और सरल है और आपके उदाहरण एकदम सजीव होते हैं। इसलिए इस बार सभी शिक्षक-प्रशिक्षण में रुचि के साथ भाग ले रहे हैं।’
शिक्षक के इन वाक्यों की सहमति में समूह के लगभग सभी शिक्षकों ने ‘हां’ मिलाई और प्रशिक्षक की प्रशंसा की। तभी मैंने उत्सुकता के साथ उस शिक्षक से पूछा- ‘सर (प्रशिक्षक) हर चीज को अच्छे से समझाते हैं, विद्यालयी उदाहरणों के माध्यम से अपनी बात रखते हैं और सभी उनके उत्तर से संतुष्ट भी होते हैं। सर के उदाहरण इतने सजीव क्यों होते हैं?’ प्रश्न सुन कर शिक्षक अपनी आवाज में जोश लाते हुए बोला- ‘सर (प्रशिक्षक) बहुत पढ़ते रहते हैं, कक्षा-कक्ष में शिक्षक सहायक सामग्री के प्रयोग के साथ नई-नई गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को पढ़ाते हैं, नियमित अभिभावकों से मिलते रहते हैं। मैं इनके विद्यालय जाता रहता हूं। इनका विद्यालय बहुत अच्छा है, आदि।’
मैंने शिक्षक से पूछा- ‘आज हमारे अधिकतर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर गिरता जा रहा है। अभिभावक बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकाल कर प्राइवेट स्कूलों में दाखिला दिला रहे हैं। सरकार विद्यालयों का एकीकरण कर रही है और धीरे-धीरे विद्यालयों के निजीकरण की बातें हो रही हैं। अगर सभी शिक्षक विद्यालय और शिक्षा से जुड़ी चीजों को समझें, शिक्षा से जुड़ी नई जानकारियों के बारे में जागरूक रहें और सर (प्रशिक्षक) की तरह परिश्रम के साथ बच्चों को पढ़ाएं तो आपको नहीं लगता कि बहुत जल्दी हमारे विद्यालयों के हालात बदल जाएंगे?’ मेरा प्रश्न सुनते ही शिक्षक के स्वर बदल गए और उन्होंने विद्यालयों में शिक्षा के गिरते स्तर के लिए सरकार की शिक्षा नीतियों, नेताओं और अभिभावकों के साथ बच्चों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया और अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपने पक्ष में तर्कों की झड़ी लगा दी। लगभग सभी शिक्षकों ने शिक्षक के तर्कों से गर्दन हिला कर सहमति जताई। शिक्षक की बातों में एक चीज समान थी- सभी तर्कों का नकारात्मक होना। शिक्षकों ने एक बार भी इस बात पर सहमति नहीं जताई कि अगर हम थोड़ा-सा प्रयास करें तो विद्यालयों की स्थिति में सुधार हो सकता है।
रोचक पहलू यह है कि लगभग सभी शिक्षकों को एक शिक्षक के कर्तव्यों, बच्चों के सीखने तथा सिखाने की प्रक्रिया और विद्यालय के अच्छे-बुरे पहलुओं के साथ शिक्षा से जुड़ी नीतियों के पीछे इसके महत्त्व के बारे में पता है। लेकिन उनकी मानसिकता में नकारात्मकता भरी हुई है और यही उन्हें आगे नहीं बढ़ने देती है। विद्यालय की स्थिति और गुणवत्ता में कैसे सुधार आ सकता है, बच्चा कैसे सीखता है और समुदाय को विद्यालय से कैसे जोड़ सकते हैं, अभिभावकों को शिक्षा के प्रति जागरूक कैसे कर सकते हैं जैसे मुद्दों पर प्रशिक्षण के दौरान शिक्षकों ने अपने-अपने विद्यालयी अनुभवों के आधार पर सुझाव रखे। अगर सभी शिक्षक उन सुझावों पर अमल करें तो विद्यालय और बच्चों की स्थिति में वाकई सुधार आ सकता है। लेकिन दुखद यह है कि सब कुछ जानते हुए भी सरकारी विद्यालयों को लेकर शिक्षकों की मानसिकता नकारात्मक बनी हुई है। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलती, कोई कितना भी प्रयास कर ले, स्थिति नहीं बदलने वाली है।
आज हमारे सामने अलवर के इमरानजी जैसे शिक्षकों के अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जिन्होंने सकारात्मक मानसिकता के साथ विद्यालय में बच्चों को पढ़ाया है और उन्हें बेहतर परिणाम मिले हैं। एक शिक्षक को राष्ट्र निर्माता के तौर पर जाना जाता है, क्योंकि वह देश के भविष्य यानी बच्चों के साथ काम करता है और विद्यालय के हर अच्छे-बुरे पहलू से अवगत रहता है। लेकिन सवाल यह है कि उसके दिमाग में बैठी नकारात्मक मानसिकता को कैसे बाहर निकाला जाए? किसी भी इंसान की मानसिकता में बदलाव लाना बहुत मुश्किल काम होता है। इसके लिए लगातार प्रयास करने की जरूरत होती है। इसकी अवधि लंबी और छोटी भी हो सकती है। यह अपनाई गई प्रक्रिया और उस व्यक्ति की अभिरुचि पर भी निर्भर करता है कि वह इन प्रयासों को किस तरह से लेता है।