दिल्ली में जहां मैं रहता हूं, वहां एक अपार्टमेंट के करीब सड़क के मोड़ पर पहुंचते ही एक बेचैनी मुझे रोज घेरने लगती है। पिछले दो हफ्ते से न भुट्टे वाला वहां है, न सब्जी वाला, न वह ठठरी-सी देह धरे बुढ़िया, जो केले में मसाला लगाकर बेचती थी। शाम को आइसक्रीम वाला भी नहीं दिखता। अब वहां खड़ी दिखती हैं लंबी-लंबी कारें। मगरमच्छ की तरह लंबी पूछ और थूथन के साथ आधी सड़क को घेरे और बाकी को भी लीलने को तैयार। कई दिन के बाद सब्जी वाला लड़का एक दूसरी सोसायटी के फुटपाथ पर दुबका-सा अपने ठेले के साथ मिला। ‘क्यों क्या हुआ, सब लोग कहां गए?’ मेरा सवाल था। बताने से पहले उसने इधर-उधर देखा। बोला, ‘पुलिस वालों’ ने सबको भगा दिया। हमारी तो ठेली भी उलट दी …। कहते हैं रास्ता रुकता है। हमारी तो दिवाली भी बर्बाद कर दी। इससे तो त्योहार पर अपने गांव चले जाते तो ठीक रहता।’ ‘और वो भुट्टेवाला’ मैंने आगे पूछा। ‘घर बैठा है खाली बेचारा, उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। पुलिसवाले खाते हैं, पैसे मांगते हैं, फिर भी गुर्राते हैं। उस होटल वाले को कुछ नहीं कहते जहां दिन में भी शराब पीते हैं।’ मैंने आगे जानना चाहा, ‘अब तो वह तो सारी जगह कार वालों ने घेर ली है रास्ता और रुक गया। आप तो एक कोने में थे। इन कार वालों ने ही कराया होगा यह सब?’ बेचारा क्या जबाव देता!
वाकई कार वालों के ही कारनामे थे ये सब। ये जब चाहें अपनी सुविधा के लिए हाशिये के इन लोगों यानी कामवाली, सब्जीवाले, मोची, फूलवाले, अखबारवालों को रहने दें, जब चाहें पुलिस को फोन करके हटवा दें। पड़ोस के नामी स्कूल में जब तब कई किस्म के बाबाओं के सत्संग, प्रवचन होते रहते हैं। सबसे पहले गाज गिरती है पटरी पर बैठे सब्जी वालों पर। कार वालों को जगह जो चाहिए, क्या इत्र-फुलेल में नहाए जीवन की कला सीखने वालों ने कभी मोटे पेट में अन्न, सब्जी, जूस, फल पहुंचानेवालों के बारे में भी कभी सोचा है? क्या सारा प्रवचन, उपदेश इनकी मोटी चमड़ी और चमचमाती कार से फिसलकर निकल जाता है! दिन के आठों पहर इन गरीबों को हिकारत से देखनेवालों ने कभी सोचा है कि ये लोग आसपास न हों तो उन्हें घर के काम करने में छठी का दूध याद आ जाए। जिनकी बदौलत उन्हें ताजा सब्जी मिलती है, घर बैठे गाय का दूध मिलता है, उन्हीं को पुलिस व्यवस्था के साथ मिलकर अपनी पॉश जगह से दूर झोंक देते हैं। और पुलिस वाले भी आंख के ऐसे अंधे हैं जिनकी आंखों में बेबस, निरीह भुट्टेवाला, फूल-फल वाला तो खटकता है है मगर सड़क घेर कर कार में बैठे आइसक्रीम खाते ये खाए-अखाए हृदयहीन लोग नहीं।
एक दिन ठेली भरी सब्जी लेकर दौड़ा जा रहा था ललित। पुलिस की मोटरसाइकिल पीछे-पीछे। थोड़ा रुका तो कोठियों वाले दो अमीर बाहर आ गए। सब्जी लेने। क्या भाव दी है। भागते भूत की लंगोटी ही सही वाले अंदाज में उसने बहुत सस्ते दाम बताए। एक अमीर तुरंत बोला- तुम रोज आ जाया करो। ‘सर आपके इस कोने पर लगा लूं ठेली?’ उसने पूछा। इस पर दोनों महानुभाव चुप्पी साध गए। अगले दिन पता लगा सोसायटी वालों ने अपनी पटरी से भी सब्जी वाले दीपक को भी हटा दिया। इससे उनके अपार्टमेंट का शो बिगड़ता था, उसकी खूबसूरती को बट्टा लगता था। एक मध्यवर्गीय सरकारी पेंशनभोक्ता सज्जन का कहना था, ‘इनके रहने से आराम तो था जी, पर कहीं कल को कब्जा न कर लें। इनका क्या भरोसा। पूरी दिल्ली बर्बाद कर दी।’ पूरे देश की सुविधाओं पर कब्जा, डाका डालने वाले मजदूर, गरीबों के कब्जे की कल्पना से ही कितना खौफ में जीते हैं। कौन जानता है कि आज नहीं तो कल कब्जा तो गरीबों का होगा ही! किसानों को कुछ राहत मिले तो इन अमीरों के पेट में दर्द शुरू हो जाता है। इनका वश चले तो आदिवासियों के लिए कुछ सोचने से पहले ही उन्हें नक्सवादी कह कर सरकार के हाथ रोक दें। बस इनकी पेंशन, तनख्वाह सलामत रहनी चाहिए। यह समझ से परे है कि जो लोग गरीब या कमजोर वर्ग को मिलने वाली छोटी-मोटी सबसिडी पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, वही लोग बड़े-बड़े कारपोरेट हाउसों, कंपनियों का लाखों-करोड़ों का कर्ज माफ होने पर चूं तक नहीं करते। इन्हें सारी कमी बस गरीबों और किसी तरह अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों में ही दिखाई देती है।
मैं पुलिस वाले की तलाश में रोज निकलता हूं। लेकिन दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर हर समय साथ रहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस आज तक नहीं दिखी, जिससे मैं इन कार वालों को हटाने की गुहार लगा सकूं। अगर कार वालों का हक है सड़क पर तो सब्जी वालों का क्यों नहीं है! लेकिन क्या वे सुनेंगे भी। दिल्ली के तो चप्पे-चप्पे पर कार वालों का कब्जा है। अपनी कविता संग्रह का ‘संसद से सड़क तक’ शीर्षक देते वक्त कवि धूमिल ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन सब जगह सफेदपोश ताकतवर वर्ग का कब्जा हो जाएगा।

