क्षमा शर्मा

उस शाम वह जम्मूतवी एक्सप्रेस थी। मुझे बरेली जाना था। पंकज चतुर्वेदी मुझे लेने आने वाले थे। मगर गाड़ी छूट चुकी थी। कानपुर स्टेशन, शाम का वक्त। सोचा कि अगले दिन बस से चली जाऊं या फिर रात की बस लूं।

पंकजजी ने कहा कि रात के मुकाबले सवेरे की बस लेना ठीक रहेगा, क्योंकि कार्यक्रम तीन बजे दिन से है। खैर, अगले दिन जब बस में बैठ गई तो कंडक्टर की पुकार कानों में पड़ी। वह बता रहा था कि बस कन्नौज, फर्रूखाबाद और गुरसहायगंज होकर जाएगी। पता नहीं कब से मैं यहां आने के बारे में सोचती रही और कभी नहीं आ पाई। कितनी बार इन जगहों को मैंने सपने में देखा है। पिछले साल मैंने अपने बड़े भाई से कहा था कि एक बार उन जगहों पर जाना है, जहां बचपन के कुछ साल बीते। इन जगहों पर बिना गए ही वर्षों पहले ‘पिता’ नाम से एक कहानी लिखी थी, जो तब ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी थी।

पिछले पचास-पचपन सालों में जहां लौटने का अवसर नहीं मिला, उन जगहों पर जाना! गाड़ी का छूटना जैसे वरदान साबित हुआ। मुझे एकाएक वर्षों से अधूरी रही अपनी इच्छा के पूरी हो जाने का यकीन नहीं हो रहा था। मैंने साथ बैठी महिला से पूछा कि क्या सचमुच यह बस कन्नौज, फर्रूखाबाद से होकर जाएगी! उसने ‘हां’ में सिर हिलाया। बचपन को याद करना, माता-पिता के आसपास लौटना, उन्हें महसूस करना, जबकि उन्हें गए जैसे युग बीत गए।

इन शहरों से जुड़ी हर चीज में अब भी जैसे वे ही समाए हैं। कन्नौज के घर का वह पीपल का पेड़, उस पर कूदते बंदर, उनके बच्चे, घर के पिछवाड़े सिंघाड़ों और पानी के सांपों से भरी पोखर, वहां से रेंग कर घर में आते और घर के कोनों में विश्राम करते सांप जिन्हें मारना मना था, घर की दो गाय, चार बकरियां, उनके बच्चे, दो कुत्ते, रेलवे स्टेशन, पटरियों पर गुजरती गाड़ियों के इंजन के छोड़े लाल अंगारे, गाड़ियों का हिसाब-किताब रखते पिता, रेलवे स्टेशन के सामने का स्कूल, उसके पास बनी मस्जिद, इमली का घना छतनार पेड़। बस पटरियों के आसपास ही दौड़ रही थी। मन में ऐसा कुछ खोज लेने की इच्छा थी, जहां गुजरे माता-पिता के कुछ निशान मिल सकें। लगता था कि बस रेलवे स्टेशन के इतने नजदीक से तो गुजरेगी ही कि मैं उस घर को देख सकूं, जहां कुछ साल बीते थे। लेकिन बस पहले ही शहर के अंदर मुड़ गई थी। मैंने अपने स्कूल और इमली के पेड़ को ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की, मगर कुछ नहीं।

जिन चीजों की आशा में हम अपने गुजरे दिनों और शहरों में पहुंचते हैं, वे वहां कभी नहीं मिलतीं। सब कुछ बदल जाता है। बिल्कुल उसी तरह, जैसे हम बदल गए होते हैं। रास्ते में एक छोटे-से दरवाजे पर लिखा जरूर देखा था- कन्नौज रेलवे स्टेशन। कहां वह खुला और निर्जन रेलवे स्टेशन और कहां यह छोटा-सा दरवाजा। ऐसा ही हुआ फर्रूखाबाद के पास पहुंच कर। बस से भीड़ दिख रही थी, मकान दिख रहे थे। गंगा भी निकल गई, मगर नहीं दिखा तो स्टेशन। न स्टेशन के पास का रस्तोगी इंटर कॉलेज, न सुक्खी हलवाई की वह दुकान, जिसकी जलेबियां सीताराम के हाथों पिता हर रोज मेरे लिए भिजवाते थे।

न वह प्रतीक्षालय दिखा, जहां मां की गोद में चढ़ कर तत्कालीन उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन को जाते देखा था, न वह शीतगृह दिखा, न वहां खड़ा खजूर, जिसके पास के कुए में एक बार बकरी गिर गई थी। नीम, पीपल, बकनिया, गूलर के पेड़, खरगोश के आकार का वह मेंढ़क, गुलाबो गाय, सर्कस की वह ट्रेन जिसमें शेर-चीते जा रहे थे और उनके पीछे बकरियां रस्सी तुड़ा कर भागी थीं। कुइंयाबूट स्कूल, मलखान मास्टर साहब, जिन्होंने पांचवीं में पढ़ाया था।

यादों की कुंडियां दिमाग का दरवाजा इस तरह खटखटा रही हैं कि कहीं कुछ याद आने से छूट न जाए। मगर जो कुछ यादों में है, वह तो कहीं दिखाई नहीं देता। मन के बक्से में जो कुछ इतने दिनों से सिमटा-सिकुड़ा रखा हुआ है, वह बाहर आने को उतावला है, मगर वैसा तो कुछ भी नहीं है। बस के साथ-साथ दौड़ती पटरियों को देख कर लगता है कि क्या इनमें कोई टुकड़ा भर ऐसा होगा जो पिता के जमाने में रहा हो। उनको ढूंढ़ने, वापस महसूस करने की एक विफल-सी कोशिश।

जिन कठिन राहों पर चल कर हम जिंदगी की दौड़ में शामिल हुए होते हैं, वही राहें जिंदगी भर तलाशते हैं। तब वे कठिन न लग कर आकर्षित करती हैं। पहले जैसा कुछ तलाशने की जुगत में जीवन निकल जाता है, लेकिन जब तक वहां पहुंच पाते हैं, सब कुछ बदल गया होता है, अपने बचपन की यादों की तरह।

 

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