ऑलडस हक्सले जब कला-प्रदर्शनी देखने के लिए कला दीर्घाओं में जाते थे तो खास किस्म के मादक पदार्थ का सेवन करते थे, जिनके असर में उन्हें रंगों की चमक और पेंटिंग का सौंदर्य पूरी भव्यता के साथ दिखे। बाग में टहलते हुए वह वनस्पति शास्त्र के अपने विराट ज्ञान को एक ओर हटा कर फूलों को देखना चाहते थे और ऐसा न कर पाने की स्थिति में उदास हो जाते थे। क्या सोच-विचार, अतीत के अनुभवों और ज्ञान के कारण इंद्रियों की सामान्य गतिविधियां बाधित होती हैं? जब हमें कहीं ठोकर लगती है, तो अक्सर यही होता है कि सोच-विचार में डूबे रहने की वजह से हम ठीक सामने पड़ी बाधा को भी नहीं देख पाते। वैसे ही जब हम कुछ सोच रहे हों और सामने वाला कुछ बोलता रहे, तो हम सुन नहीं पाते, क्योंकि मन विचारों में कहीं डूबा होता है। हम कहते हैं ‘ध्यान’ कहीं और था। ‘ध्यान’ वहीं था, उस पर कोई पुरानी स्मृति या कोई फिक्र हावी हो गई थी। ऐसा ही था क्या?

‘ऊहापोह’ शब्द को हमारे सामान्य सोच-विचार का निकटतम पर्याय कहा जा सकता है। हम सोचते कुछ और हैं, कह बैठते हैं कुछ और। करते समय तो और भी बखेड़ा खड़ा कर जाते हैं। एक ही बार में दो विरोधाभासी चीजों की इच्छा; एक साथ ही कुछ पाने की भी और न भी पाने की अभिलाषा। कुल मिला कर सोच-विचार बड़ी उपद्रवी चीज है। कथनी, करनी और कह सकें तो ‘सोचने’ के बीच बड़ी-बड़ी खाइयां होती हैं, जो हमारे सोच-विचार की बुनियादी रूप से काइयां प्रकृति पर प्रकाश डालती हैं। फैज ने इस दुविधा और असमंजस की स्थिति को कितनी खूबसूरती के साथ कह दिया है- ‘दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम/ कहने को उनके सामने, बात बदल गई।’

कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि ज्यादातर विचार असजग होने पर आते हैं। सजगता की बिल्ली चौकन्नी होकर बैठी रहे तो विचार का चूहा बिल से ही नहीं निकलता। यह प्रयोग करने योग्य है। कुछ पलों के लिए सही, गौर से विचारों को देखने की कोशिश करें। देखिए कि विचार या तो आएंगे नहीं या फिर उनका वेग कम हो जाएगा। इससे सवाल उठता है कि क्या विचार एक तरह की बेहोशी में ही आते हैं? बेहोशी अतीत की स्मृति या भविष्य की फिक्र में खो जाने का ही दूसरा नाम है। अगर ऐसा है तो इस बेहोशी के कारक सिर्फ सतही नहीं; चेतना की अवचेतन, अचेतन परतें ऊपरी परतों से अधिक गहरी और अबूझ हैं। गालिब ने कहा है- ‘बेखुदी बेसबब नहीं गालिब / कुछ तो है, जिसकी पर्दादारी है।’

हम शायद ही कभी सोचते हों कि विचार क्या हैं, सोच क्या है, इनकी उत्पत्ति कहां है! क्या स्मृति से? क्या भावनाएं भी सोच ही हैं? अगर सोच-विचार स्मृति का प्रत्युत्तर है और स्मृति की जड़ें अतीत में ही हैं तो नई सोच जैसा कुछ हो सकता है? हम जो कुछ भी सोच रहे हैं वह क्या किसी और ने, किसी और समय में कहीं नहीं सोचा? फिर नई, मौलिक और अपनी सोच जैसा क्या है? चमकते सूरज के नीचे जो है, वह क्या पुराना ही है?

हर विचार के केंद्र में मजबूती और पूरी जिद के साथ बैठा हुआ एक ‘मैं’ है। पर इस ‘मैं’ की संरचना ही संदेह के दायरे में है। हो सकता है यह स्मृतियों का एक पुलिंदा मात्र हो। बस एक मनोवैज्ञानिक संरचना भर हो। ‘मैं’ का भाव विचार को एक निरंतरता देता प्रतीत होता है। इसके बगैर विचारों का भवन भरभरा कर गिर पड़ेगा, ऐसा ही लगता है। अब गौर किया जाए कि क्या ऐसा भी कोई विचार है, जिसमें ‘मैं’ न हो! एक और सवाल। क्या ‘मैं’ अहम् का भाव भी बस एक विचार ही है?

विचार करना मन के सबसे गहरे संस्कारों या आदतों में है। यह मानना मुश्किल है कि उसके बगैर भी जीवन को समझा जा सकता है, सभी के लिए बेहतर और आसान बनाया जा सकता है। इसलिए बौद्धिकता का, विचारों का महिमामंडन एक सामान्य बात है जो बहुत छोटी उम्र से ही दिमाग में ठूंस दी जाती है। आइंस्टीइन ने विचार के इस खेल को समझा था और यह भी कहा था कि विचार से पैदा हुई समस्याओं का समाधान विचार के स्तर पर हो ही नहीं सकता! विचार की मदद से समाज ने बहुत प्रगति की है और साथ ही दुनिया के विनाश में भी विचार का ही सर्वाधिक योगदान रहा है!

विचार का अर्थ प्रगतिशील विचार ही नहीं, विचार का विरोध फासीवाद ही नहीं। बहुत ही क्रूर, दकियानूसी और प्रतिक्रियावादी लोग भी विचार के असर में ही सोचते और काम करते हैं। आम भाषा में हम भले ही उसे विचारहीन कह लें, पर उन पर भी विचारों की मजबूत गिरफ्त होती है। समस्या यह भी है कि इस तरह की बातों का इस्तेमाल तथाकथित धार्मिक लोगों ने अपनी धनलोलुप, सत्ता की भूखी रसना को तृप्त करने के लिए कर लिया है। वे विचारातीत ध्यान, परम शांति और इस तरह की तमाम बेबुनियाद बातें करके अगंभीर लोगों को रिझाने लगे। इसलिए विचारों की अंदरूनी दुनिया का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन नहीं हो सका। हुआ भी तो रोजमर्रा की जिंदगी में, प्राथमिक शिक्षा के स्तर से नहीं, बल्कि एक खास किस्म के विज्ञान के रूप में। जबकि विचार और उसकी वैज्ञानिक समझ उतनी ही आवश्यक है, हमारे रोजमर्रा के जीवन के साथ उतनी ही गहराई के साथ जुड़ी है, जितनी कि हमारा आहार, व्यवहार और शारीरिक स्वास्थ्य।