इसी परिप्रेक्ष्य में हर जगह के स्वादिष्ट व्यंजन विभिन्न प्रकार से मशहूर भी हैं, जिनमें मिठाई और पकवान की विशिष्ट पहचान है। मीठे का मतलब खुशी का वह पल, जहां व्यक्ति किसी सुखद अवसर पर इसे खाकर या खिलाकर खुश होता है। देश के हर कोने में लोगों को मिठाई अत्यंत पसंद होती है।
केवल होली जैसे बाकी लोकपर्व नहीं, बल्कि जन्मदिन से लेकर शादी और पूजा-पाठ तक सब कुछ मधुर व्यंजन से शुरू होता है। कहा जाता है कि दिल और दिमाग का रास्ता पेट से होकर गुजरता है। दरअसल, सामान्य भोजन जहां हमारे शरीर के लिए पोषक तत्त्वों का असीम स्रोत है, वहीं मधुर व्यंजन के स्वाद जिह्वा की चाह की पूर्ति करती है।
गांव में बीते बचपन की स्मृतियां ज्यादातर लोगों को आज भी जीवंत लगती होंगी। शरद ऋतु में गुड़ और देशी घी के मिश्रण से निर्मित मेथी के लड्डू मिट्टी के पात्र में पूरे जाड़े के मौसम के लिए सुरक्षित रखा जाता था। पड़ोस के घरों में भी ‘बैना’ के रूप में इस लड्डू के कुछ अंश का वितरण परस्पर सहयोग और स्नेह में गतिशीलता बनाए रखता था। वहीं, लड्डू की मिठास की सुस्वादु महक छोटे बच्चों को सबकी नजरों से बचते हुए चुपचाप एक-दो लड्डू चट करने में घर के सभी अनुशासन से मुक्त कर देती थीं।
विशेषकर वैवाहिक कार्यक्रमों में पारंपरिक व्यंजनों में बेसन लड्डू, खाजा, बालूशाही, जलेबी, बुंदिया आदि घर में तैयार किए जाते थे। इसके लिए इसकी कच्ची सामग्री कुछ तो बाजार से खरीदी जाती थी, जबकि अधिकांश चीजें घर के खेत से उपजी हुई होती थीं। इन मिठाइयों की तैयारी में गांव के जानकर लोग खुद बिना किसी पारिश्रमिक के दूसरे के घर में होने वाले समारोह, खासकर बेटी की शादी में पूरी तल्लीनता से हाथ बंटाते थे।
शादी-विवाह के बाद वापस जाने वाले कुटुंब को एक पोटली में इन मिठाइयों के कुछ भाग को देने की परंपरा थी। मधुर व्यंजन की उत्पत्ति के बारे में पाक विशेषज्ञों और पूर्वजों का कथन है कि दैनिक जीवन में सबसे पहले खीर, हलवा का स्थान प्रमुख था। रसोईघर में उपलब्ध आटे, घी, चावल, गुड़ से ये व्यंजन बनाए जाते थे।
गर्मी के दिनों में गांव पधारे अतिथियों को सबसे पहले गुड़ और पानी पेश कर उन्हें थकावट से मुक्ति दिलाने की कोशिश की जाती थी। मौसमी गन्ने के रस से निर्मित खीर, जिसमें दूध की भी पर्याप्त मात्रा दी जाती थी, उसके स्वाद आज भी जिह्वा को ललचा देते हैं। जल्दी में आटे और गुड़ से बने गुलगुले खाने पर मन कभी अघाता नहीं था।
घरेलू मिठाई की महत्ता जिंदगी की भागदौड़ में आज भले विलुप्ति के कगार पर है, लेकिन उसके चखे अंश स्वाद की छाप मस्तिष्क में यथावत है। हर प्रांत में मिठाई की अलग-अलग किस्में हैं। भारतीय भोजन की तरह मिठाइयों में भी अनेक विविधता देखी जा सकती है। एक ओर पूर्वी भारत के हिस्से में छेना आधारित मीठा व्यंजन अधिक प्रचलित है, वहीं अधिकांश उत्तर भारत के भाग में खोया निर्मित मिठाइयां लड्डू, हलवा, खीर, बरफी आदि अधिक लोकप्रिय है।
दरअसल, आधुनिक नगरीय संस्कृति ने एक से एक किस्म की मिठाइयों से बाजार को आच्छादित कर दिया है। गांव में आए अतिथियों को रसोईघर से निर्मित पकवान से स्वागत की स्थिति आज भी शाश्वत है, जबकि शहरों में तुरंता आनलाइन मंचों से मनचाही मिठाइयों की आपूर्ति हो रही है। हर प्रदेश में मिठाई या पकवान ही ऐसा व्यंजन है जो हमारे भोजन को अधिक आकर्षक और प्रभावशाली बनाता है।
उदाहरण के तौर पर बिहार में गया जिले का तिलकुट, नालंदा जिले का खाजा, आरा जिले का बेलग्रामी जबकि सीतामढ़ी जिले का बालुशाही अपनी पुरानी पहचान की प्रसिद्धि से मिठाई प्रेमियों के लिए एक सम्मान बनाए हुए है। इसी तरह प्रत्येक प्रांत की मिठाई के अलग प्रकार और उसकी प्रसिद्धि है।
ग्रामीण क्षेत्र से विस्थापित लोग जो कई कारणों से नगरों में रस बस गए हैं, उनमें कुछ परिवार अपने साथ पुरातन काल की विधियों और व्यवस्थाओं को साथ लाए हैं और वे उन परंपराओं के निर्वहन में गतिशील भी हैं। लेकिन संख्या वैसे परिवारों की अधिक है जो गांव और शहर की संस्कृति के मध्य अटके हुए हैं। वे मिथ्या मर्यादा के परिपालन में दोनों विधाओं में किसी एक पर एकाग्र नहीं हैं। चिकित्सा विज्ञान के सर्वेक्षण के जरिए स्पष्ट रूप से चिह्नित किया गया है कि शहरीकरण के यंत्रवत जीवन में अधिक लोग पकवानों की विरासत से विलग हो रहे हैं।
शारीरिक श्रम, वर्जिश और भोजन सामग्रियों की गुणवत्ता के अभाव में उनके शरीर अनेक रोगों के शिकार भी हो रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि पारंपरिक पकवान और मिठाइयां, जो हमारी धरोहर श्रेणी में रही हैं, उसे लुप्त होने से बचाया जाए। खाने की मात्रा में संयम और इसके बनाने में अगर पुरानी पद्धति अपनाई जाए तो हमारा पाचन संस्थान भी स्वस्थ रहेगा और साथ ही इसके मधुर मिठास से हमारा पूरा मानस मुस्कान और प्रसन्नता से सराबोर रहेगा।