जब एक व्यक्ति घर से बाहर निकलता है और प्रकृति की शरण में अकेला ध्यानमग्न होता है तो वह साधारण नहीं होता। वह प्रकृति का ही एक चेतन अंश बन जाता है। यों आमतौर पर व्यक्ति अधिकांश समय घर और कार्यालय की दीवारों के भीतर बंद रहता है। वह बाहर निकलता भी है तो भीड़ के साथ, भीड़ में मिल जाने और भीड़ के दुर्गुणों में लिप्त हो जाने के लिए। खैर, वह इसी भीड़ से बचने के लिए महानगर को छोड़ एक छोटे पहाड़ी कस्बे में आ गया था। भीड़ से दूर रहने पर उसे जीवन से गहन प्रेम होने लगा। वह अब एकांत-शांत होकर खुद से प्रेम कर रहा है। इस प्रेम की अनुभूति एकांत में ही हो सकती है। वह संवेदना के इतने गहन तल पर पहुंच चुका था कि उसे अनिद्रा रोग ने घेर लिया। हालांकि एकांत, शांत रहने और अपने आप से लगाव बढ़ते जाने से उसे अनिद्रा से कोई खास शारीरिक समस्या नहीं थी। लेकिन एक दिन देर रात तक उसे नींद नहीं आई तो वह तरह-तरह के विचारों के आंदोलन से अपने मस्तिष्क को पिसता हुआ महसूस करने लगा। विचारों पर नियंत्रण कर उन्हें थामने का अपने आप से किया गया उपाय सफल तो हुआ, पर उसका सिर दर्द से तपने लगा। किसी तरह रात गुजरी, सुबह हुई। लेकिन अगले दिन शाम तक भी सिर दर्द ठीक नहीं हुआ।
उस दिन शाम से पहले उसके शहर के ऊपर काले बादल घिर आए थे। बरसात के मौसम में वर्षा किसी पूर्वानुमान के बिना ही आ जाती थी। उस शाम भी रिमझिम करती वर्षा बूंदों ने धरती, वृक्ष लताओं, पौधों सहित सब कुछ भिगो दिया। वह घर पर अकेला ही था। सिर दर्द विचित्र बेचैनी उत्पन्न करने लगा। वह उठा और सीधे छत पर चला गया। बूंद-बूंद गिरती वर्षा में भीगते हुए वायु का स्पंदन उसे अपनी सांसों, त्वचा, मुख और शरीर के खुले अंगों के लिए बेहद सुकूनदेह और जीवनदायी लगा। शाम का वह वक्त उसके जीवन में अपरिमित प्राकृतिक आनंद लेकर आया। बारिश की बूंदें भी धीरे-धीरे वायु के मद्धिम स्पर्श से भाप बन उड़ गर्इं। आसमान में काले मेघों के आवरण जितनी तेजी से बने थे, उससे अधिक तीव्रता से बिगड़ने-बिखरने लगे। देखते-देखते ही गगन ने रंगों का उत्सव मनाना शुरू कर दिया। क्या कल्पनातीत रंग थे! जैसे रंग अग्नि में जल कर रंगीले धुएं से नभ की रूप-सज्जा कर रहे थे। कुछ पल के लिए धुंधली छवि में इंद्रधनुष भी दिखाई पड़ा था। क्षण-क्षण बदलते रंगों के अतुल सौंदर्य से छन कर जो सूर्य प्रकाश धरती पर बिखरता, उसमें धानी-हरियाली धरती आंखों को चुंधियाने वाली चमक से भर उठी।
रात घिरने लगी। शाम के रात में बदलते रहने से विभिन्न रंगी मेघ आसमान को जैसे अपने अद्वितीय रंगों के आकर्षण से विस्मित कर देना चाहते थे। दक्षिण-पश्चिम दिशा की सीमा पर आसमान में अपने नुकीले कोनों को फैलाए अर्द्धचंद्र प्रकट हो गया। रुई के स्वर्णरंगी फाहों जैसे पारदर्शी मेघों से ढका हुआ चंद्रमा संध्या और रात्रि के मिलन का सबसे अद्भुत संकेत था। ध्रुवतारा भी उससे कुछ नीचे टिमटिम करता दिखने लगा था। वर्षाजनित कीट-पतंगों, झींगुरों की कुर्र-कुर्र किर्र-किर्र करती ध्वनियां परिवेश को प्रकृति के विचित्र अनुभवों से भर रही थीं। शाम के खत्म होने के वक्त दक्षिण-पश्चिम का आकाश जैसे संपूर्ण प्रकृति और इसके जीव-जंतुओं के लिए परम धाम बन गया।
चाहे आकाश के रंग हों, चंद्रमा या ध्रुव सितारा हो, पवन के स्पंदन हों या फिर गगन विहार करते पक्षी… सभी दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जाने के लिए व्यग्र हो उठे, मानो वहां न जाकर सभी की सांस अटकने वाली हों। उसने जीवन में पहली बार उस ढलती शाम में आकाश की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर हजारों पक्षियों को एक साथ उड़ते हुए देखा। कितना अद्भुत दृश्य था वह! उस दिशा में कुछ दूर तक तो पखेरू उड़ते हुए दिखते रहे, फिर आंखों से ओझल होते रहे। वह हैरान सोचता रहा कि इतने पक्षी उसी रात्रि-संध्या बेला में उस दिशा की ओर उड़ रहे हैं या वह पहली बार यह सब देख और अनुभव कर रहा है!
समूचे आकाश ने रात्रि की घनी नीलिमा ओढ़ ली थी। अर्द्धचंद्रमा और ध्रुव तारे उसे अपने रजत प्रकाश से आत्मविभोर करने लगे। पूरा आसमान सितारों की रजत टिमटिम से भर गया। रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होने वाला था। उसे उसकी पत्नी ने कंधे से खींच कर हिलाया तो उसे आभास हुआ कि वह सिर दर्द से मुक्ति के लिए पिछले साढ़े चार घंटे से प्रकृति की शरणागत था। उसका सिर दर्द से पूरी तरह मुक्त था। आकाश की रंगोली, पखेरुओं की उड़ान, चांद-सितारों की रजत किरणों और धानी-हरीतिमा वसुंधरा को स्पर्श कर बहने वाली पवन के स्पंदनों ने उसके मस्तिष्क की अद्भुत चिकित्सा कर दी थी।