संतोष उत्सुक
किसी भी स्थिति में अनुशासन लागू कर स्थिति को नियंत्रण करने में हम खुद को माहिर मानते हैं। अपने को विश्वगुरु कहते नहीं थकते, बल्कि इसे बार-बार दोहराते रहते हैं कि हजारों कानून, सरकारी अफसर और अनुशासित प्रशासन अपना कर्तव्य जिम्मेदारी, कर्मठता और ईमानदारी से निभा रहे हैं। सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं के सक्रिय सहयोग से जाति, धर्म, बेरोजगारी जैसी दिक्कतों से निबटने के लिए ठोस आर्थिक अनुशासन लागू कर रखा है।
हमारे देश में कुछ नेताओं को अनेक समस्याओं का दोष आराम से विदेशी ताकतों के सिर मढ़ को देने की आदत रही है, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि विदेशी हाथों की अदृश्य ताकत खुद ही हमारे अनुशासन प्रिय नेताओं और शासकों को ज्यादा कड़ा अनुशासन सिखाने आई हुई है। हमारे लापरवाह, लेकिन शेखी पसंद कुछ नुमाइंदों को परेशान होना पड़ रहा है। उन्हें सुबह से शाम तक लोगों को निर्देश देने पड़ रहे हैं कि यह न करो, वह न करो, ऐसा करो, नहीं वैसा करो आदि। प्रशासन द्वारा अनुशासन लागू करने के लिए नियम और व्यवस्थाओं के रंगरूप बदले जा रहे हैं। आंकड़ों की स्वादिष्ट कढ़ी पकाने में पसीने निकल रहे हैं। महामारी ने नाक में दम कर दिया है… इतना कि अनुशासन खुद परेशान हो गया है।
व्यवहारिक अनुशासन बेहतर तरीके से लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे में अक्सर और बार-बार लगता है कि अगर सब सचमुच बदल गया तो कैसी स्थिति होगी। फिलहाल इतना ज्यादा अनुशासन इकट्ठा हो गया है लागू करने के लिए कि पता ही नहीं चल पा रहा है कि क्या करना था, क्या हो गया और क्या बाकी रह गया। करना कुछ चाहते हैं, लेकिन हुआ कुछ और ही जाता है। वैसे तो ज्ञानीजन ठीक कह गए हैं कि कोई काम करना वैसे भी मुश्किल काम है। अनुशासन में बंध कर काम करना तो और भी मुश्किल है। पूर्णबंदी से राहत के नियमों का पालन करने के लिए अनुशासन बनाए रखना कितनी मेहनत का काम साबित हो रहा है, यह हम सब देख सकते हैं।
पहले अनुशासन की सिर्फ बात की जाती थी, इसलिए बहुत सुहावना लगता रहा था। कोई काम न करे, उसे ईमानदारी से जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं था और अभी भी मुश्किल है। इतनी सामाजिक योजनाएं सोचना, बनाना, कितना समय, बुद्धि और धन खर्च करवाती है, लेकिन उनके क्रियान्वयन में अनुशासन बनाए रखना ही सबसे बड़ी बाधा बन जाता है। पिछले कई दशक की दिन-रात की मेहनत हमने खुद और दूसरों को अनुशासन की कक्षा से बाहर करने में लगाई है और अब फिर से अनुशासन की कक्षाएं लगानी पड़ रही है। अनुशासन के पहरे में अनुशासन तोड़ने वाले थक नहीं रहे हैं, यह देख कर अनुशासन खुद ही परेशान होता जा रहा है। महामारी ने अदृश्य रह कर भी हमें काफी सीधा कर दिया है, लेकिन जो समस्याएं हमारे अपने समाज ने पैदा कर रखी हैं, उनसे निपटने में हमारा जीता जागता सुचारू प्रशासन हमेशा नाकाम हो जाता है।
दुनिया में जो छोटे आकार के देश बेहतर तरीके से प्रशासन चला रहे हैं, उनके बारे में कह दिया जाता है कि उनके यहां जनसंख्या कम है, इसलिए प्रबंधन आसान होता है। क्या हमारे देश में अलग-अलग राज्यों की चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारें सक्षम नहीं हैं? इतनी कठिन परीक्षा पास कर आए हर जिला में बैठे उच्च अधिकारियों के पास अनेक प्रशासनिक शक्तियां हैं। क्या राजनीति इतनी काबिज हो चुकी है कि उसके इशारे बिना पत्ता तक नहीं हिलता? सिर्फ महिलाओं की बात करें तो कानून से न डरने वाले, असामाजिक तत्त्वों द्वारा उनके निरंतर शोषण, अपराध की करतूतें, इंसानियत, समाज और सरकार को झकझोरने की कोशिश में बार बार नाकाम होती रहती हैं, क्योंकि इनके अपराधियों को धार्मिक, जातीय, राजनीतिक सुरक्षा मिल जाती है।
राजनीति की छांव में लगभग सभी राज्यों में पुलिस और प्रशासन लीपापोती करता दिखता है। हमारी व्यवस्था की टालमटोल, लापरवाही और उदासीनता खत्म ही नहीं होती। पिछले दस वर्षों में महिलाओं के शोषण और उनके खिलाफ अपराधों में हुई चौवालीस फीसद की बढ़ोतरी इसका ज्वलंत प्रमाण है। मानवता निरंतर शर्मसार होती रहती है, लोग खूब शोर मचा कर आवाज उठाते हैं, लेकिन व्यवस्था चिंतित नहीं होती। सोचता हूं कि क्या प्रशासन की हमेशा ही दूसरी प्राथमिकताएं रहती होंगी!
करोड़ों देवी-देवताओं और लाखों पूजा स्थलों के देश में लगता है, अब भगवान से डरना सब लोग पसंद नहीं करते। कानून से डरना तो जुर्म ने कब से छोड़ रखा है, इसीलिए कानून और व्यवस्था का गलत इस्तेमाल यकीनन बढ़ रहा है। यह सुझाव बार-बार जोर पकड़ता है कि राजनीतिक दृष्टिकोण में गंभीर नागरिक, सामाजिक, संवेदनशील व्यवहारिक बदलाव की बहुत जरूरत है।
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में व्यक्ति पूजा, जाति और आर्थिक असमानता कभी खत्म होती नहीं दिखती, लेकिन आम देशवासियों को कुछ संवेदनशील मामलों में सिर्फ एक व्यक्ति मान कर इंसानियत भरा सुलूक किया जाए तो स्थिति सुधरनी शुरू हो सकती है। अनुशासन की परेशानी खत्म करनी बहुत आवश्यक है। बदलाव हमेशा ऊपर से नीचे की ओर आता है, लेकिन कोई बदलना नहीं चाहता। सवाल यह है कि आरोप-प्रत्यारोप के युग में हम नहीं बदलने वाले, चाहे कुछ हो जाए के जमाने में अनुशासन की परेशानियां कब खत्म होंगी, यह सचमुच विचारणीय है।
