विलास जोशी
हमारे जीवन में ‘प्रसाद’ और ‘प्रतिसाद’ का बहुत महत्त्व है। सच कहा जाए तो हमारा जीवन खुद उस प्रकृति का दिया हुआ एक ‘प्रसाद’ ही है। जो प्रसाद हमें मंदिरों या धार्मिक आयोजनों में मिलता है, उस पर हम बहस नहीं करते, बल्कि उसे बिना देर किए मुंह में डाल देते हैं। जब कोई हमारे हाथ में प्रसाद देता है, तब हम उसकी मिठास या स्वाद पर विचार नहीं करते, क्योंकि प्रसाद अपने आप में एक पवित्रता का भाव लिए होता है। प्रसाद के अनेक रूप हो सकते हैं। किसको किस रूप में कौन-सा प्रसाद मिलेगा यह स्थान और काल में उस व्यक्ति की सक्रियता पर निर्भर करता है।

जब मैं छोटा था और स्कूल में ‘घरकार्य’ (होम वर्क) करके नहीं ले जाता था, तब हमारी क्लास टीचर मुझे कहती थी कि मेरे हाथ का ‘प्रसाद’ मिले बगैर तुम्हें होमवर्क करने की आदत ही नहीं है क्या’! उनके ‘प्रसाद’ का मतलब ‘छड़ी पड़े छम छम, विद्या आए घम घम’ से था। अगर कोई हमारे हाथ में चने-चिरौंजी के दाने भी दे देता है, तो हम उसे प्रसाद ही कहते है।

एक बार मैं एक छोटे-से गांव के एक मंदिर में गया था। वहां एक सेवानिवृत्त हो रहे अध्यापक का सम्मान समारोह था। कार्यक्रम शुरू होने में कुछ समय शेष था, इसलिए मैं उस मंदिर में गया था। तब पुजारी ने मुझे प्रसाद दिया। मेरे एक शहरी मित्र भी गांव देखने के मकसद से मेरे साथ आए थे। जब पुजारी ने उनके हाथ में भी प्रसाद दिया, तो सबसे पहले उन्होंने देखा कि यह क्या चीज है।

फिर वे बोले- ‘यार, हम गांव में जिस काम के लिए आए हैं, उसमें शामिल न होते हुए यहां व्यर्थ ही समय गवां रहे हैं’? मैं उसको कुछ जवाब देता, उसके पहले एक वरिष्ठ अध्यापक हमें बुलाने वहां आ गए और बोले- ‘चलिए, कार्यक्रम आरंभ होने जा रहा है’।

कार्यक्रम शुरू हुआ। इस दौरान एक अध्यापिका ने बताया कि आज हम यहां जिस अध्यापक का सम्मान समारोह कर रहे हैं, उनका जीवन हमारे लिए बहुत प्रेरणादायी है। उनके एक युवा पुत्र की भरी जवानी में अकाल मृत्यु हुई। उनकी एक विवाहित पुत्री कम उम्र में विधवा होकर मायके आ गई। इन दो हादसों के कारण उनकी पत्नी का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया। उनका उपचार करके उसे स्वस्थ बनाने के दौरान ही लड़की ने नासमझी कर आत्महत्या कर ली। बड़ी मुश्किल से वे दोनों एक दूसरे को सहारा देकर इस आपदा की घड़ी से उबरे।

उनकी दुख भरी कहानी सुन कर मेरा दिल भर आया। जब हम वापस शहर आने के लिए निकले, तब मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उन अध्यापक महोदय से पूछ लिया कि- ‘आपने इतना दुख किस प्रकार सहन किया’? वे बोले- ‘जीवन में मुझे जो कुछ भी मिला, मैंने उसे उस दाता का दिया ‘प्रसाद’ माना। यह सब हमारे प्रारब्ध हैं, जिसे हमें सहने की आदत डालना है’।

उनकी बात सुन कर मेरी आंख भर आई। मैंने उनको नमन किया, तब उन्होंने मेरे हाथ पकड़ लिए। यकीन मानिए, उनके हाथ का स्पर्श भी मुझे एक दिलासा भरा प्रसाद ही लगा। उसके बाद हम शहर की ओर चल पड़े। मैं सोचने लगा कि अगर वास्तव में हमारा जीवन उस दाता का दिया एक ‘प्रसाद’ ही है तो हमारा जीवन कितना सुंदर होना चाहिए! लेकिन जो प्रसंग हमारे जीवन के हिस्से में आए, उसे उस विधाता का प्रसाद मान लिया जाए तो अपने जीवन ही सारी आपाधापी ही मिट जाती है।

एक सच यह भी है कि प्रसाद पेट भरने का साधन नहीं होता, बल्कि संतुष्टि का एक पर्याय होता है। मैंने ऐसे बहुत से मठ-मंदिर देखे हैं, जहां कथा-प्रवचन सुनने तो बहुत कम लोग आते हैं, लेकिन जिस दिन भंडारा होता है, उस दिन ‘महाप्रसाद’ रूपी भोजन के लिए काफी भीड़ होती है। कुछ लोग तो भंडारे के दिन घर के सदस्यों के लिए टिफिन भर कर भी ले जाते हैं।

अगर जीवन के हर एक क्षण को हम कुदरत का प्रसाद मान ले तो सारे तनाव एक क्षण ही में खत्म हो जाते हैं। जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं, तो हमारा जीवन भी ‘प्रसादिक’ हो जाता है। इस विशाल ब्रह्मांड के कण-कण में आनंद छिपा हुआ है, लेकिन इंसान स्वार्थी बन कर सारा आनंद अकेले ही अपनी तिजोरी में भर लेना चाहता है। नतीजतन, इस आपाधापी में उसकी झोली खाली ही रह जाती है।

खुद को मिला यह जीवन एक ‘महाप्रसाद’ ही है। यह मान लिया जाए। यह हमें सीखने और दूसरों को समझाने की भी जरूरत है। अपने पास जो कुछ भी है, उसमें से कुछ सबके बीच बांटते हुए जीवन जीने से हम भी कुछ अंशत: ‘दाता’ बन ही जाते हैं। अपने आंसू आंखों में छिपा कर हंसी की चांदनी चारों तरफ फैलाना, बस यही तो जीवन-प्रसाद का दूसरा नाम है। बहरहाल, मेरा गंतव्य आ गया था। मैं मन के आनंद के बीच जो भी सोच रहा था, उसके प्रतिसाद से मुझे असीम संतुष्टि का अनुभव हुआ।