मीना बुद्धिराजा
आज के अति उपभोक्तावादी और तीव्र प्रतिस्पर्धा के समय में जहां अमानवीय होकर आगे निकलने की होड़ ने मनुष्य की मूल प्रकृति और सहजता को भी मानो पराजित कर दिया है तो ठहर कर सोचने की बहुत जरूरत है। अस्तित्व का चुनाव व्यक्ति के लिए सबसे जरूरी और स्थायी उपलब्धि है, क्योंकि अपनी चेतना के स्तर को पहचान कर ही फिर सब कुछ जाना जा सकता है।
जब हम व्यर्थ का कुछ जाने देते हैं, तभी कुछ सार्थक प्राप्त कर सकते हैं, उससे पहले नहीं। अगर इस पर गौर नहीं किया जाता है तो निरर्थक दबाव इतना घेर लेते हैं कि सच और मूल्यवान को आने का रास्ता ही नहीं मिल पाता है। उसके आने के लिए पहले जीवन में व्यर्थ का भरा हुआ सब खाली करना पड़ेगा, क्योंकि समूह में रहते हुए अपने बारे में पूरी तरह जानना बहुत चुनौतीपूर्ण और कठिन है और उसके बाद बहुत कुछ खोने का भय भी है। लेकिन यह पहचान और जानना जरूरी है। तभी वह अपने परिवेश और समाज से कोई तार्किक सबंध बना सकता है, न कि सिर्फ उसका संवेदनशून्य और विचारहीन औपचारिक हिस्सा बनकर रह सकता है।
अपनी निजता में जीकर संघर्ष करते हुए किसी लक्ष्य को प्राप्त करना लाख गुना बेहतर है सफलता के लिए दूसरों के साथ समझौते पर खड़ी जिंदगी से। इस जीवन की ही कोई सार्थकता है, जिसमें किसी असाधारण व्यक्ति का अस्तित्व किसी भी साधारण प्रलोभनों से प्रभावित नहीं होता। न ही वह किसी पद-प्रतिष्ठा के लिए भीड़ की मानसिकता का अनुकरण करता है, क्योंकि कोई भी सीमित स्वार्थ उसके अस्तित्व की विशाल संभावनाओं और अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता।
इसलिए उसकी स्वतंत्र चेतना के अनुसार ही जीवन के निर्णय भीतर से आने चाहिए, चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। इस मुक्त जीवन शैली में दुनिया और समाज की व्यवस्था के मापदंड पर बहुत कुछ खोकर भी अपने को पाने की संतुष्टि है और जीवन को उसकी परिपूर्णता में जिया जा सकता है। बाहरी सफलताओं की संख्या से जीना उसकी सार्थकता को खो देना है और दूसरों के अनुकरण में ही सफलता को खोजना अपने अस्तित्व के अर्थ से चूक जाना है।
अपने स्वभाव के अनुसार और जीवन के सभी अनुभव, संघर्ष और उत्थान-पतन के साथ विकसित होते हुए ही कोई नई दृष्टि व्यक्ति को नए विकल्प दिखा सकती है, किसी के अनुकरण से नहीं। अपनी प्रकृति और परिस्थितियों से सीख कर जीना अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेना है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की चेतना का स्तर अलग है, सोच अलग है, एक दूसरे से भिन्न है।
ऐसे ही सबके अस्तित्व की मौलिकता का अपना वैशिष्ट्य भी जैसे प्रत्येक फूल अपना-अपना रंग और खुशबू ही उसके सौंदर्य का कारण है। इसलिए अपने उस आंतरिक सौंदर्य को पहचानना भी जरूरी है, जो बहुत-सी बाहरी सतहों के नीचे छिपा है। दरअसल, बाहरी अनुकरण कुरूप होता है, सिर्फ भीड़ का निरर्थक हिस्सा। इस वास्तविकता को समझ जाना ही क्रांति है, जब तक वह जीवन में न आ जाए। इस एक ही सच को अनेक रूपों में कहा जा सकता है, लेकिन मूल पाठ और उसका स्वर एक ही है कि अपने को पहचान कर ही बाकी सबको जाना जा सकता है।
आत्मविश्लेषण से जब उस पूरी व्यवस्था को समझने लगते हैं, जहां से ये सभी आरोपित चीजें आ रही हैं तो बौद्धिकता की एक अंतर्धारा बहने लगती है। तब लगता है कि भीड़ और बाजार की मानसिकता व्यक्ति की आंतरिक रिक्तता को नहीं भर सकती। मनुष्यता की नियति उन सभी दबावों और बंधन से मुक्त होकर अपने अस्तित्व की स्वाधीनता को पाना है जो उसके लिए सामाजिक संरचना ने निर्धारित किए हैं और यही सबसे पहले व्यक्ति का चुनाव होना चाहिए। संकुचित जीवन जीना अपने आप में एक अपराध है, इसलिए इस विशाल दृष्टि के लिए बहुत से संकीर्ण रास्तों को छोड़ना जरूरी है।
हालांकि कई बार सीमाओं से समझौता करना असंभव हो जाता है। किसी भी तरह की मानसिक निर्भरता को अस्वीकार करके सिर्फ अस्तित्व की मुक्ति को केंद्र में रखना ही अपनी कोई सार्थकता साबित कर सकता है। जो दूसरों के अनुकरण से प्राप्त सफलता है, वह बहुत सतही है और अधिकतर अपनी व्यर्थता में कृत्रिम और भयावह भी। अपनी संभावनाओं को खोजने के लिए अपने अंदर के निर्णय के स्वर को सुनना और जीवन में उसकी भूमिका को निर्धारित करना बहुत मूल्यवान है।
अपने से ऊंचा कुछ करने के लिए अपने ही विरुद्ध जाना पड़ सकता है, संघर्ष और चुनौतियों से जूझ कर और सुविधापरक रास्तों को भूल कर किसी अदृश्य विकल्प को भी स्वीकार करने के लिए तैयार रहना जरूरी है। जब जीवन में उस बिंदु पर पहुंचते हैं जहां किसी को प्रभावित करने का स्वार्थ नहीं रहता, वहीं से अस्तित्व की स्वतंत्रता आरंभ होती है।