सुनना सचमुच एक कला है। किसी खास व्यक्ति को सुनना नहीं, बस सुनना। परिंदों के गीत को, किसी की तकलीफ, पहाड़ों के मौन या नदी के संगीत को। बगैर किसी अनावश्यक प्रतिक्रिया के सिर्फ सुन लेने को सबसे दुरूह कामों में शामिल किया जाना चाहिए। ध्यानपूर्ण श्रवण भी कभी-कभी एक से अधिक इंद्रियों की सम्मिलित, समेकित और समकालिक गतिविधि की मांग करता है। किसी को सुनना सहिष्णुता का प्रतीक है; न सुनना असहिष्णुता है।
बच्चे सुनने की इस कला के साथ स्वाभाविक रूप से परिचित होते हैं, पर उम्र बढ़ने के साथ ही सुनने की क्षमता कम होती जाती है। भौतिक श्रवण की नहीं, मनोवैज्ञानिक श्रवण की। हाल ही में किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के सालाना जर्नल में एक दिलचस्प वाकया पढ़ा। आठ साल का एक बच्चा अपने पिता के कमरे में जाता है और देखता है कि उसका पिता कोई किताब पढ़ने में डूबा है। बच्चा कहता है- ‘पापा, आपसे बात करनी है।’ पापा अपने स्वर में मिठास घोल कर झूठी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए कहता है- ‘बोलो बेटा!’ बच्चा थोड़ा नाराज होकर कहता है- ‘मैं चाहता हूं कि आपने किताब के बीच में जो अपनी अंगुली फंसाई हुई है, उसे हटा कर मुझसे बात करें।’ किताब के पन्नों के बीच पिता की अंगुली देख कर बच्चा समझ जाता है कि पिता का ध्यान किताब पर ही है; बस वह औपचारिकतावश उसकी बातें सुनेंगे, फिर किताब पढ़ने में व्यस्त हो जाएंगे। बच्चे के पास इस बात की एक नैसर्गिक क्षमता है कि सुनना अवधान की मांग करता है; यह चलते-फिरते, किसी काम के बीच में बस यों ही निपटा दिया जाने वाला एक और काम नहीं।
किसी को सुनना और सिर्फ सुनना- दोनों अलहदा हैं। सुनना इसलिए कठिन है कि जब भी हम किसी को सुनते हैं, भीतर से तुरंत सुनी जा रही बातों की व्याख्या शुरू हो जाती है, वक्ता की बातों की किसी और की बातों के साथ तुलना शुरू हो जाती है। जब कोई बोलता है, तो खुद अपनी बात कहने का आग्रह भीतर से उठता है। बड़ी मुश्किल से शालीनता, शिष्टाचार के नाम पर ही हम किसी को अच्छी तरह सुन पाते हैं। हमारा अहंकार पूरी कोशिश करता है कि कैसे बोलने वाले को चुप किया जाए और अपनी बात कह दी जाए। ज्ञान, पूर्वग्रह और स्मृतियां अहंकार या ईगो का हिस्सा हैं और वे सुनने से रोकती हैं। भय की वजह से हम अपने शिक्षक, बॉस या कलेक्टर को तो ध्यान से सुन लेते हैं, पर किसी ऐसे व्यक्ति को सुनना जो आपसे कमजोर हो, मन के लिए बड़ी चुनौती है। किसी को सुनने से पहले हम वक्ता की ‘हैसियत’ की नाप-तोल करते हैं। एक प्यारी कहानी है। कोई दार्शनिक हर सुबह अपने घर आने वाले लोगों से मिलता है, जीवन के मूलभूत प्रश्नों पर उनके साथ संवाद करता है, फिर लोग वापस लौट जाते हैं। एक दिन ज्यों ही वह अपने कमरे से बाहर निकलता है, पास के पीपल पर कोई पक्षी बड़ी मीठी आवाज में गाने लगता है। दार्शनिक महोदय चुप रहते हैं, पक्षी के गीत को पूरा सुनते हैं और फिर वहां बैठे लोगों से कहते हैं- ‘आज की वार्ता यहीं समाप्त हुई।’ उनका अर्थ यही है कि हम किसे सुनते हैं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं, बल्कि कैसे सुनते हैं उसका महत्त्व है।
हम एक दूसरे को सुन पाते तो क्या हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक क्लेश और अंतहीन संघर्ष थोड़े कम नहीं हो जाते? स्वस्थ संवाद ध्यानपूर्ण श्रवण से ही शुरू हो सकता है। टीवी पर चलने वाली बहसों को देखिए तो लगता है कि अब सुनने की क्षमता घटती जा रही है! उसमें शामिल हर व्यक्ति बस चीखता रहता है और दूसरे किसी को अपनी बात कहने का या पूरी करने का मौका नहीं मिलता। अगर इन कार्यक्रमों का समय सीमित होता है, तो उनमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या को कम कर देना चाहिए। कम से एक ज्ञानवर्धक विनिमय का, नई अंतदृष्टियों को साझा करने का अवसर तो मिलेगा लोगों को।
एक दूसरे को सुन कर ही चेतना में गहराई से बैठे पूर्वग्रहों से मुक्त हुआ जा सकता है। एक दूसरे के सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक संदर्भों को समझ कर ही उसे ध्यान से सुना जा सकता है। अगर हम अपने विचारों और अपनी आवाज की ध्वनि को लेकर ही आत्ममुग्ध हैं तो किसी को भी सुनना मुमकिन नहीं होगा। किसी को सुनने के लिए विनम्रता की भी जरूरत पड़ती है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हमारे पास एक सीखने वाला मन हो। किसी की बातों से, उसके हाव भाव, देह भाषा को देख-सुन कर भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अक्सर दो लोगों के बीच बातचीत में हम बस अपनी ही कहते चले जाते हैं। पढ़े-लिखे, विद्वानों को अक्सर ऐसा करते देखा जा सकता है। किसी से पूरी आत्मीयता और स्नेह के साथ बस यह पूछ लेना कि वह कैसा है, फिर उसे सुनना एक आत्मीय, प्रेमपूर्ण संवाद के लिए एक मजबूत नींव का काम करता है। इसकी कला तेजी से लुप्त होती जा रही है।