प्रभात कुमार
दंपति के कुछ खास लम्हों के वीडियो शौक से सार्वजनिक करने की प्रवृत्ति फैशन में है। सहजीवन में रह रही महिला साथी के शव के टुकड़े करने की खबरें हैं। सोशल मीडिया अनेक बार इंसानी जिंदगी की किताब खोलकर रख देता है। जीवन की छियासठवीं सालगिरह पर एक वरिष्ठ नागरिक ने सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी में लिखा, ‘अब तो ऊपरवाले से यही गुजारिश है कि हम दोनों को इकट्ठे उठा ले।’
सामान्य भारतीय परिवार के आंगन में उगा यह खुरदरा, मगर भावनात्मक निवेदन काफी कुछ बताने में सक्षम है। परिपक्व होते जा रहे जीवन में एक ऐसा समय आशंकित है, जब जीवन साथी वास्तव में साथ-साथ, एक दूसरे के लिए जीते हुए, एक दूसरे की परवाह करते हुए भी, जिंदगी की विसंगतियों, पारिवारिक स्थितियों और सामाजिक ताने-बाने से उकताने लगते हैं। लकीर की फकीर जैसी परिस्थितियों की पगडंडियों पर चलते-चलते कहीं थककर सोचा गया यह विचार वास्तव में ईमानदार और पारदर्शी है। इस कथन में स्थितिवश उपजी आपसी कड़वाहट के कुछ टुकड़े भी शामिल हो सकते हैं।
जीवन साथ-साथ बिताने के लिए विवाह किया जाता है, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं होता कि कितना समय साथ गुजारना है। विवाह से पहले प्रेम रचाया हो या बाद में प्यार उगाया हो, आपसी समझ और सद्भाव ही जीवन को मधुर जीवन बनाते हैं। विवाह के बाद बच्चे, उनका लालन-पालन, शिक्षा, करिअर, नौकरी, शादी जैसे पड़ाव जिंदगी की किताब में खट्टे-मीठे अनुभव जोड़ते हैं।
शिक्षा और नौकरी में बच्चों द्वारा बेहतर प्रदर्शन करना, दूसरे शहर या देश जाना स्वादिष्ट आयाम जोड़ता है। सब जानते हैं कि मानव शरीर को अप्रत्याशित समय पर पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाना है। कहा और गाया भी यही जाता है, ‘दुनिया से जाने वाले… जाने चले जाते हैं कहां’। हालांकि माना जाता है और दुआ भी यही की जाती है कि दिवंगत आत्मा को स्वर्ग मिले। असामाजिक व्यक्ति भी अपनी आत्मा को नरक में नहीं जाने देना चाहते।
सेवानिवृत्ति के बाद पति-पत्नी का अकेले साथ में रहना खट्टे-मीठे कड़वे अध्याय लिखवाता है। हर दंपति का अनुभव अलग रहता है। बहुत से बुजुर्ग दंपति अपने संपन्न बच्चों के साथ नहीं रहना चाहते। कुछ दादा-दादी अपने पोते-पोतियों के साथ चाहकर भी नहीं रह पाते। जिस प्रांगण में वरिष्ठ होते पति-पत्नी खुशी-खुशी अपने पुत्र के परिवार के साथ रहते हैं, उनके अनुभव अलग-अलग और विचित्र हैं।
पुत्र और बहू दोनों नौकरी करते हैं और दादा-दादी घर और बच्चे संभालते हैं। पुरानी होती मां, नई रसोई में सक्रिय सहयोग बराबर देती है। उससे घर का काम नहीं छूटता। कुछ अभिभावक अपनी बेटी के परिवार को सहयोग करने के लिए तत्पर रहते हैं। उनका वहां रहना, बेटी और दामाद के व्यावसायिक जीवन का संबल बनता है। साथ में नाती-नातिन को खेलने, खिलाने वाली बुजुर्ग होती मां यहां भी अथक मेहनत करती है।
पत्नी के साथ घर के कामों में सहयोग करते हुए पति को भी पारिवारिक सुख मिलता है। यह पूरी तरह समझ में आता है कि घरेलू, पारिवारिक संबंध संसार का प्रबंधन जितना बेहतर पत्नी कर सकती है, पति नहीं कर सकता। बरसों साथ बिताकर, जिंदगी की शाम में साथी के बिछड़ने का दर्द पूछता जरूर है कि जब साथी की सचमुच जरूरत होती है, तभी क्यों बिछोह आता है।
एक साथी के जिंदगी से निकलने के बाद दूसरे साथी के लिए अकेले जीना सचमुच मुश्किल हो जाता है। जो व्यक्ति अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरा कर चुके हैं, अकेले रह गए हैं और उनके शेष जीवन यापन का प्रबंधन उनके परिवार या सामाजिक व्यवस्था के लिए मुश्किल हो तो ऐसे लोग दुनिया छोड़ने की इच्छा जाहिर करते दिख सकते हैं। हालांकि अब इस पर बहस जारी है कि इसकी स्वीकार्यता के नतीजे क्या-क्या हो सकते हैं!
भावी दुख की कल्पना करते हुए किसी परिस्थिति में अगर यह खयाल आता है कि जीवन साथी के रूप में दुनिया से साथ ही विदा हुआ जाए तो यह लगभग असंभव है कुछ घटनाओं या दुर्घटनाओं को छोड़कर, जिसमें पति-पत्नी दुनिया से साथ-साथ रुखसत होते हैं। यहां एक विचार प्रवेश करता है। कहा गया है कि लगाव में अलगाव भी उगाए रखना चाहिए। यह व्यावहारिक सिद्धांत जिंदगी में अपना लिया जाए तो तनाव कुछ कम रहता है। व्यक्ति अनेक वस्तुएं खरीदता है, खरीदना चाहता है। मनचाहे व्यक्तियों से संबंध बनाता है।
स्वाभाविक रूप से उसे उन भौतिक वस्तुओं से बहुत लगाव हो जाता है। वह उन्हें खूब संभाल कर रखता है। उन पर कभी अनजाने में लगी एक खरोंच भी सहन नहीं होती। मानवीय संबंधों के मामले भी संवेदनशीलता बहुत ज्यादा होती है, लेकिन अलगाव मरहम का काम करता है। यह मरहम सलामत रहे तो किसी भी तरह के नुकसान का दुख थोड़ा कम होता है। इससे उपजी सहनशीलता, सहजता, नकारात्मकता कम करने का माहौल बनाने में मदद करती है। कठिन परिस्थितियों में यह बहुत काम आता है।