पुरानी कहावत है कि इंसान आदतों पर जीने वाला जीव है। कई आदतों से हम परिचित होते हैं, जबकि कई ऐसी भी होती हैं जो मन के अचेतन, अंधेरे कोने में कहीं छिपी रहती हैं। पर उनकी आड़ी-तिरछी रेखाओं पर ही हमारी रोज की जिंदगी चलती है। आदतें अक्सर जीवन को यांत्रिक, बोझिल और उबाऊ बना देती हैं। कई अजीबोगरीब आदतें हम पाल लेते हैं।

जैसे लकड़ी या कागज चबाना, सिर या भवों के बाल नोचते रहना, नाखून चबाना, एक ही बात को कई बार दोहराना, पुरानी किताबों या पेट्रोल को बार-बार सूंघना, दिन में कई बार हाथ धोते रहना, किसी शब्द या वाक्य को अपना तकिया कलाम बना लेना, वगैरह। आदतें जब व्यसन में का रूप ले लेती हैं, तो उनसे मुक्ति और कठिन हो जाती है। सेहत चौपट होती है अलग से।

नौकरी करने की आदत भी इतनी गहरी होती है कि सेवानिवृत्ति के बाद जीवन में उतरे खालीपन का सामना करना मुश्किल हो जाता है। कोई ‘काम’ न मिलने और अचानक ‘अनुपयोगी’ हो जाने के तनाव से कई लोग सेवानिवृत्ति के बाद जल्दी ही दुनिया से विदा हो जाते हैं। तीस-चालीस वर्षों तक एक ही तरह की जिंदगी जीने की आदत उन्हें एक कार्य-मुक्त जीवन के लिए बिल्कुल अक्षम बना देती है। इसका परिणाम अक्सर गंभीर बीमारी या मृत्यु भी हो सकता है। सेवानिवृत्ति के बाद जल्दी होने वाली मृत्यु को लेकर कई गंभीर शोध भी हुए हैं।

आदतों के जल्दी नहीं छूटने की एक वजह तो यह है कि हम उन्हें छोड़ने के बारे में बड़े चयनात्मक होते हैं। सुख देने वाली आदतों को बचाए रखना चाहते हैं और जो दुख देती हैं, उनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं। कुछ आदतें छोटी उम्र में ही शुरू होती हैं और धीरे-धीरे हमारे मन की गहरी परतों में जड़ें जमा लेती हैं और तब उनसे निजात पाना कठिन हो जाता है। नशे की आदत अक्सर इसी श्रेणी में आती है।

अक्सर हम एक आदत को दूसरी ‘बेहतर’ आदत में बदलने की कोशिश करते हैं। सिगरेट छोड़कर चुर्इंग गम चबाने में लग सकते हैं। गौरतलब है कि हमारा भोजन भी अक्सर आदत के असर में ही होता है। कई बार जितनी देह को जरूरत होती है,अक्सर उससे कम या ज्यादा खाते हैं। कभी हम अवसाद के कारण भी ज्यादा खाने लगते हैं। कुछ लोगों को अकेले रहने की आदत पड़ जाती है तो उन्हें भीड़ में बेचैनी होने लगती है। कुछ को भीड़ की ऐसी आदत होती है कि अकेले होते ही वे व्याकुल हो उठते हैं।

अमेरिकी लेखक फास्टर वालेस के मुताबिक, हम कभी गौर नहीं करते कि हम कौन-सी आदतों से घिरे हैं। हम जो भी सोचते और करते हैं, जो फैसले करते हैं, कैसे कपड़े पहनते हैं, क्या, कब और कितना खाते हैं, हमारा जागना और सोना, सोने की अवधि, हमारे साथी-संगी, सभी हमारी चेतन-अचेतन आदतों की ओर ही इशारा करते हैं।

उनका कहना है कि कुछ आदतें सरल और कुछ जटिल होती हैं, पर वे यह भी मानते हैं कि आदतों की ऊर्जा बड़ी लचीली होती है। वे उतनी अपरिवर्तनीय नहीं होतीं, जितनी दिखती हैं। कोई शराबी नशे के दुष्परिणामों के बारे में सोचे-समझे तो शराब छोड़ भी सकता है। टूटे हुए परिवार फिर से जुड़ जाते हैं। स्कूल में ही पढ़ाई छोड़ देने वाला बच्चा नई आदतें डाल कर एक सफल कारोबारी या संगीतकार भी बन सकता है। आदतों के बदलने या छोड़ने में इच्छाशक्ति की उतनी अधिक भूमिका नहीं होती, जैसा कि अक्सर लोग सोचते हैं।

आदतें निर्मित होने की एक निश्चित यात्रा होती है और वैसे ही उनको त्यागने की भी। नशे की आदतों से हजारों घर और जिंदगियां बर्बाद होती हैं और उन्हें समझने और खत्म करने के लिए मित्रों और परिवार के लोगों के स्नेहपूर्ण व्यवहार और पेशेवर सहायता, दोनों की जरूरत पड़ सकती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि धूम्रपान जैसी आदत न छूटे तो कोशिश करें और पूरे होशोहवास के साथ सिगरेट पिएं।

सिगरेट की डिब्बी को निकालें, उसे खोलें, सिगरेट निकालें, उसे देखें, होठों से लगाएं, लाइटर जलाएं, सिगरेट जलाएं, धुएं को भीतर लें, महसूस करें, धुएं को बाहर आते समय देखें और महसूस करें। एक-एक हरकत को बारीकी से देखें और महसूस करें। मोबाइल और इंटरनेट की आदत पड़ गई हो तो इस पर भी यही तरीका लागू करें। हर बार मोबाइल की ओर जाते हुए अपने मन और हाथों को देखें।

खत्म होने से पहले हर आदत की अभिव्यक्ति का धीमा होना जरूरी है। इसके पीछे वजह यह है कि हर आदत के पीछे अतीत की बहुत बड़ी ताकत होती है, और जो काम आदतन किए जाते हैं, वे बहुत जल्दी में किए जाते हैं। अक्सर बेहोशी में भी। हम रोज जो कुछ भी करते और सोचते हैं, उसका नब्बे फीसद हमारी आदतों का हिस्सा होता है। आदतें एक आरामदायक बिस्तर की तरह होती हैं। उनमें घुस जाना आसान है, पर उनसे बाहर निकलना बहुत मुश्किल!