स्वरांगी साने
जर्मन कवि और प्रसिद्ध नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त ने बीसवीं सदी में यह बात कही थी कि ‘बरस ऐसा, कहेंगे बातें लोग इसके बारे में/ बरस ऐसा, रहेंगे लोग चुप इसके बारे में’। उसके बाद जाने कितने बरस आए और गए, जब लगा होगा कि यह बरस पिछले बरसों से बदतर था। और हर बार ये पंक्तियां घूमी होंगी।
कइयों के दिमाग में घूमी होंगी। लेकिन इस बार लगता है यह सामूहिकता का नया दौर है, जब बहुतों के मन में उक्त पंक्तियां घूमने लगी हैं। लोग कह रहे हैं वे उनके जन्मदिन नहीं मनाएंगे, क्योंकि वे इस साल को गिनने ही नहीं वाले। लेकिन गिनने या न गिनने से आया साल, ‘नहीं आया’ यह तो माना नहीं जाएगा न! सन 2020 को लेकर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम के सपने और उसकी हकीकत के बीच का लंबा फासला यह साल लेकर आया है।
हर क्षेत्र में भयानक उठापटक हुई है, विश्वभर की आर्थिक व्यवस्था डगमगाई है, कितनों की नौकरियों पर बन आई है। शिक्षा व्यवस्था पर जो असर हुआ है, उसका खमियाजा अगली पीढ़ी को किस कदर उठाना पड़ेगा, कह नहीं सकते हैं। शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक टूटन देखने में आई है, उसका समाज पर असर होगा ही।
युवा पीढ़ी जिस मोहजाल में थी, उसका वह मोहजाल टूटा है। मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग मॉल, इंटरनेट, चैटिंग, वायरल वीडियो, आनलाइन गेम और आभासी दुनिया का भ्रम जाल। वहां से सीधे वे यथार्थ के धरातल पर आ गए हैं। नौकरियों का रोना तो पहले भी था, देश में ‘ब्रेन ड्रेन’ या प्रतिभा पलायन ऐसे ही नहीं हुआ था, लेकिन अब वैश्विक स्तर पर यह दुखड़ा गाया जा रहा है और युवा समझ नहीं पा रहा है कि वे जाएं तो जाएं कहां। कई बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं स्थगित हो गईं या अब जब होंगी, उसका असर परिणामों पर होगा, क्योंकि पढ़ने-पढ़ाने की गति शिथिल पड़ गई है।
कुल जमा यह साल कछुए की गति से बढ़ता नजर आ रहा है, लेकिन लोक कथाओं में कछुए की जीत दिखाई गई है। तो क्या हम इस आशा में जी सकते हैं कि यह साल उसी तरह जीतेगा, जैसे कछुआ जीता था! मतलब जो लोग तेज भाग रहे थे और निश्चिंतता का जीवन जी रहे थे, उन्हें समझ आया कि इस तरह भागदौड़ भरी जिंदगी का हासिल शून्य है और जिसे वे निश्चिंत होना कह रहे थे, वह स्वप्न में जीना था। सच यह है कि जो निरंतर चलेगा, वह जीतेगा। सच यह है कि जो स्थिर राह चुनेगा, वह जीतेगा। मतलब इस साल को भी गिनना होगा, न केवल आयु के आंकड़ों में, बल्कि तमाम स्थितियों में भी।
हमने क्या सीखा? संकट से हम कैसे पार हुए? जो जीत जाएंगे, उनके पास हौसला होगा कि जिसे वे अपना जीना मान रहे थे, वे सारी सुख-सुविधाएं उनसे छिन गईं, तब भी वे जी सकते हैं। सुख-सुविधाओं का होना, आपका होना नहीं होता। सुख-सुविधाओं को हटा देने पर जो बचता है, वह हमारा जीवन है। इस साल ने लोगों को अधिक गंभीर बनाया है, लेकिन कहीं-कहीं अक्षम भी कर दिया है।
कइयों के जीवन में एक तरह की उदासीनता और अकर्मण्यता आ गई है कि अब क्या करना है, क्या कर सकते हैं? लेकिन लोक कथाओं से उस किसान की कहानी उठा लीजिए जो अकाल और सूखे के कई पेचीदा सालों में भी अपना खेत जोतता रहा था, इस उम्मीद से कि बारिश होगी और जब बारिश हुई तो केवल उसी की फसल लहलहा रही थी, क्योंकि उसकी जमीन तैयार थी, उसमें बीज पड़े थे।
भगतसिंह ने कहा है- ‘जिन्हें आजाद होना है, उन्हें खुद चोट करनी पड़ेगी’। तो हम अगर मुश्किल परिस्थिति से अपनी आजादी चाहते हैं तो हमको खुद हाथ-पैर हिलाने होंगे। हमारे आसपास की परिस्थितियां नहीं बदलेंगी तो क्या परिस्थितियों के बदलने का इंतजार करते रहेंगे? जब कहा जाता है कि रेलगाड़ी के गुजरने के लिए फाटक बंद हो तो इधर-उधर से न निकलें, तब तो हम लोहे के उस डंडे के नीचे से गुजरते हैं, आसपास से राह तलाशते हैं, रेल गुजरने का थोड़ा इंतजार भी हम नहीं कर पाते तो इस साल के गुजरने का इंतजार क्या साल गुजरने के बाद तक भी करते रहेंगे?
निकोलाई आस्त्रोव्स्की स्पष्ट कहते हैं- ‘अगर इंसान के पास-पड़ोस की जिंदगी भयावह और उदास हो तो वह अपने निजी सुख की शरण लेता है। उसकी सारी खुशी अपने परिवार में केंद्रित रहती है। जब ऐसा हो कोई भी निजी दुर्भाग्य (जैसे बीमारी, नौकरी छूट जाना आदि) उसके जीवन में विषम संकट पैदा कर देता है। उस आदमी के लिए जीवन का कोई लक्ष्य नहीं रहता। वह एक मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है। उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं, जिसके लिए वह प्रयास करे, क्योंकि उसके लक्ष्य केवल निजी जिंदगी तक सीमित होते हैं।
पूंजीवाद जानबूझ कर शत्रुता और विरोधाभाव का पोषण करता है’। हम अपने भीतर के पूंजीवाद से निकलें। अपनी ताकत को पहचानें और अपनी तलवार को जंग लगने से बचाएं, ताकि जब युद्ध का मौका हो तो जीवन संग्राम में हम तैयार दिखें। फिर से ब्रेख्त के ही शब्दों में कहूं तो- ‘क्या अंधेरे में भी गीत गाए जाएंगे/ हां अंधेरे के बारे में भी गीत गाए जाएंगे’। हम विश्वास रखें, गीत गाएं, अंधेरे के खिलाफ गाएं’ मुक्त हो जाएं..!

