अनिल त्रिवेदी
जैसे प्रकाश में प्राकृतिक प्रवाह के रूप में गति और विस्तार शुरू से है, वैसे ही मन और शरीर में भी गति और प्रवाह निरंतर है। अशांत मन शांति को तलाशता है। शांत मन सारी हलचलों को बीज रूप में अपने आप में समाए रखता है। शांति की तलाश का विचार भी मनुष्य के अशांत मन में आया। यानी अशांति के विस्तार के बाद फिर से मूल शांत स्वरूप में आने की चाह सहज प्राकृतिक क्रम है।
जो विचार मन, वचन और कर्म को निरंतर अशांत स्थिति में ले जाए वह संस्थागत सांप्रदायिक विचार। शांति हलचल रहित चित्त की अवस्था है जो जीव को प्रकृति से स्वत: ही एकरूप कर देती है। चित्त में शांति जीवनी शक्ति के चैतन्य स्वरूप का जीवंत उदाहरण है। अशांत चित्तता जीवन की चेतना के प्रवाह में अवरोध है। जीव जीवन का साकार स्वरूप है, जिसका एक जीवन क्रम है जन्म और मृत्यु का अंतहीन सिलसिला। जन्म साकार है, मृत्यु निराकार में समा जाना है। जन्म होते ही नए-नए विचार की यात्रा मन में प्रारंभ होती है।
शांति और विचार प्राकृतिक चेतना के प्रवाह हैं। जब विचार को निश्चित स्वरूप में एक विचारधारा के रूप में ढाला जाता है तो अंतहीन मत-मतांतरों की उत्पत्ति होकर विचार के प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध से अशांति, असंतोष और अप्राकृतिक संस्थागत व्यवहार की क्षणिक उत्पत्ति होती है। मेरे-तेरे का सांप्रदायिक विचार और संगठनात्मक या संस्थागत व्यवहार मन के विस्तार को संकुचित करने की कोशिश में लग जाता है। अशांत मन और सांप्रदायिक विचार मनुष्यों के प्राकृतिक स्वरूप को यांत्रिक जड़ता में बदल डालता है।
विचारवान मनुष्य का यांत्रिक कठपुतली में बदल जाना मनुष्य की संभावना का असमय खत्म हो जाना है। विचारधाराओं ने विचार को बांधकर मनुष्य को विचार के आधार पर न जाने कितने स्वरूपों में बांटकर मनुष्यों की सनातन ऊर्जा की खपत तेरे-मेरे की संकुचित सोच में खर्च करने का अशांति मूलक भूल-भुलैया खड़ी कर डाली। आज के समय में मनुष्य सभ्यता में यांत्रिक समाधान का एक विचार नए स्वरूप में उभरा है। मनुष्य की मदद के लिए या मनुष्य की शक्ति के विस्तार के लिए यंत्रों से मदद लेने का लंबा सिलसिला मनुष्य सभ्यता में निरंतर चलता रहा है।
पर अब यांत्रिक सभ्यता का विस्तार इस गति से मनुष्य के जीवन में रच-बस रहा है कि मनुष्य यांत्रिक सभ्यता का एक अंश हो गया है। मानवीय संवेदनाओं की बुनियाद पर खड़ी सभ्यता में जड़वत यांत्रिक सभ्यता जिस रूप में मनुष्यों में घुसपैठ करती जा रही है, वह एक बड़ी चुनौती है। इसका समाधान आज के काल के मनुष्यों को विचार और प्रचार के मूल स्वरूप में खोजना होगा। प्रचार मनुष्य के विचार को प्रचार से प्रभावित कर अंधानुकरण की दिशा में ले जाता है, जबकि विचार मनुष्यों को सनातन काल से स्वतंत्रचेता स्वरूप में ही बने रहने की स्वतंत्र ऊर्जा निरंतर प्रदान करते हैं।
विचार का प्रवाह और मशीन से विचार का प्रायोजित संचार- ये आज के काल का सर्वथा नया आयाम है। एक जड़ यंत्र किस बड़े स्वरूप में बिना आपस में मिले ही एक दूसरे को किस हद तक अशांत या समृद्धशाली कर सकता है, यह आज के काल का नया दृश्य है जो समूची मानव सभ्यता के सामने आ खड़ा हुआ है। सनातन रूप से स्वतंत्र विचार की जगह संकुचित और प्रायोजित प्रचार तंत्र ने कुछ मनुष्यों में एक नए भ्रम को जन्म दिया है। आज का मनुष्य विचार से कम और प्रचार से जल्दी प्रभावित हो जाता है। यह भ्रम आज फैलने लगा है। आज सशरीर या प्रत्यक्ष रूप से विचार विनिमय के बजाय यांत्रिक उपकरण या तकनीक द्वारा विचार का संचार कर मनुष्य को प्रभावित करने के नाते नए-नए उपकरण मनुष्य को सुलभता से उपलब्ध होते जा रहे हैं।
हमारी धरती पर, जहां मनुष्य नहीं है वहां प्राकृतिक रूप से शांति है। किसी किस्म का कोलाहल नहीं। एकदम नीरवता हर कहीं व्याप्त होती है। आनंददायक अनुभव से मुलाकात होती है और हम आंतरिक और बाह्य शांति में डूब जाते हैं। हर मनुष्य में अपनी चेतना का भाव मूलत: मिलता है, पर हम सब अपनी चेतना को अन्य समकालीन जीवों की चेतना से एकाकार नहीं कर पाते। इसी से मन में असंतोष या अशांति का भाव पैदा होता है और हम सब शांति की खोज यात्रा के आजीवन यात्री हो जाते हैं।
धरती से आकाश तक जो हवा, पानी, प्रकाश का विस्तार है, वह सब हमारे अंदर भी उसी रूप में मौजूद है। तीनों कभी किसी से भेद नहीं करते। तीनों की अनंत ऊर्जा है। तीनों ने मिलकर समय से जीवन को निरंतर जीवन चक्र दिया।विचार और शांति दोनों ही निराकार हैं। हर विचार बिंदु में वैसी ही बीज शक्ति होती है, जैसी पानी की बूंद में जीवनी शक्ति है। जैसे असंख्य बूंदें मिलकर साकार महासागर अभिव्यक्त करती हैं, वैसे ही निराकार विचार साकार मनुष्यों में जीवन की आदि चेतना को हर मनुष्य के विचार प्रवाह को शांति के बीज स्वरूप में बनाए रखता है।