राकेश सोहम्

यह कहावत उन लोगों पर लागू होती है जो राह से भटक जाते हैं और फिर सही रास्ते पर आ जाते हैं। भूलना एक मानवीय स्वभाव है। लोग सुबह के कितने ही क्रिया-कलाप शाम तक भूल जाते हैं। अगर आवश्यकता न हो तो इन्हें दोबारा याद करने की जरूरत नहीं पड़ती। वहीं ऐसा भी होता है कि जब चीजें याद आनी चाहिए, तब याद नहीं आती।

लाख उलट-पुलट होने के बाद भी स्मरण में लाना संभव नहीं होता, तब मन निराशा से भर जाता है। हालांकि प्रत्येक शरीर में स्मरण और विस्मरण की अपनी व्यवस्था होती है। हर एक शरीर की स्मरण क्षमता भिन्न होती है। स्मरण क्षमता समान होते हुए भी इस मामले में भिन्न हो सकती है कि वह चीजों को किस रूप में संचित रख सकती है।

किसी को अंक आसानी से याद हो जाते हैं, किसी को शब्दश: कही गई बातें याद रह जाती हैं और किसी की स्मृतिपटल पर दृश्य सदा के लिए छप जाते हैं। दृश्यों की स्मृति को लेकर ‘दृश्यम’ नामक एक अच्छी फिल्म बनी है। पुराने दृश्य सहज ही दोबारा स्मृति में कौंध जाते हैं। उनकी वापसी आसान होती है। सही समय पर आवश्यक बातें याद आ जाएं तो निर्णय आसान हो जाते हैं।

मस्तिष्क में संचित बातों के क्रमचय-संचय से ही एक सही निर्णय लेने में मदद मिलती है। कहा भी गया है, बिना सोचे कोई भी निर्णय ठीक नहीं होता। कई बार ऐसे निर्णय घातक हो सकते हैं। सवाल यह है कि ये बातें हमारे दिमाग में आती कहां से हैं और ये कितनी तादाद में हैं। अमूमन हमने जो देखा-सुना या जो हमें सिखाया जाता है, वही दृश्य और बातें हमारे मन-मस्तिष्क के किसी कोने में संचित होते रहते हैं।

अगर निर्णायक मोड़ पर कुछ देर के लिए शांत बैठकर सोचें तो संचित बातें निकलकर सामने आना शुरू हो जाती हैं। मजे की बात यह है कि हमारा मस्तिष्क न केवल आज की निर्णायक स्थिति से मिलती-जुलती अच्छी-बुरी संचित बातों और दृश्यों को ही सामने रख देता है, बल्कि तात्कालिक परिस्थितियों में लिए गए निर्णय के परिणाम क्या हुए हैं, यह भी मस्तिष्क चेता देता है।

जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव और संस्कार व्यक्ति के मस्तिष्क को निर्णय लेने के योग्य बनाते हैं। वैसे दुनिया में कुछ भी सही या गलत नहीं होता है। दुनिया सही और गलत से मिलकर बनी है। कोई बात जो हमारे लिए सही जान पड़ती है, दूसरे के लिए गलत हो सकती है। या फिर इसके उलट भी हो सकता है। जीवन के अनुभव पैदा होने के बाद से जीवनपर्यंत इकट्ठा होते रहते हैं, जबकि संस्कार व्यक्ति के यौवन अवस्था आने तक संचित होते हैं।

समय, पर्यावरण और भूमि के अनुसार निर्धारित जीवनचर्या और रहन-सहन से संस्कार बनते हैं। इनसे इतर व्यवहार न केवल समाज के लिए, बल्कि स्वयं के लिए भी नुकसानदेह होते हैं। बाल बुद्धि अपने विकास के दौर में संस्कार संजोते हुए परिपक्व होती है। एक परिचित की बेटी परदेस में अकेली रहती है। वह अध्यापन कर रही है। एक दिन खबर आई कि सप्ताहांत पर घूमने जाते समय उसका स्कूटर बर्फ पर फिसल गया।

अंधेरा था, रास्ते पर बर्फ की पतली परत जम गई थी जो उसे समझ नहीं आई। फिसलन के कारण स्कूटर अनियंत्रित हो गया। चोट गहरी आई। चार सप्ताह चिकित्सीय देख-रेख में रहना पड़ा, तब जाकर तकलीफ कुछ कम हुई। ऐसा नहीं है कि उसने गलत निर्णय लिया होगा, लेकिन नया देश, नया पर्यावरण, नया परिवेश, नए तरह के वाहन और ऊपर से रात्रि में आने-जाने के लिए अतिरिक्त सावधानी और परिपक्वता की आवश्यकता होती है। उस जगह से परिचित या फिर अभिभावकों के दिशानिर्देश में शायद ऐसी दुर्घटना टाली जा सकती थी।

बच्चे जब अकेले रहते हैं, तब उन्हें दोगुनी जिम्मेदारी उठानी होती है। उन्हें खुद अपना अभिभावक बनना पड़ता है। अच्छे-बुरे का निर्धारण और सुरक्षा के लिए एहतियाती निर्णय खुद लेने पड़ते हैं। ऐसे समय में बच्चों को दी गई जीवन-मूल्यों की शिक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अच्छे-बुरे, सही-गलत समय-बेसमय की पहचान वही शिक्षा देती है और वही हमें सुरक्षित सफलतापूर्वक अभीष्ट तक पहुंचाते हैं।

यों वक्त के थपेड़े इंसान को बहुत कुछ सिखाते चलते हैं। बस उसमें हमारा लड़ना, संभलना और फिर आगे की ओर बढ़ चलना इस बात पर निर्भर करता है कि बचपन से लेकर युवावस्था तक हमें शिक्षित कैसे किया गया। शिक्षा स्कूल की नहीं, जीवन जीने और उसके रहस्यों को समझ-बूझ कर आगे चलने की शिक्षा। कुल मिलाकर, हम जिन जीवन-मूल्यों से शिक्षित होते हैं, वही हमारा व्यक्तित्व गढ़ते हैं। वे अंतस में बैठे डांटते-फटकारते हैं और एक सही निर्णय लेने में मदद करते हैं। ऐसा व्यक्ति सुबह भूल भी जाए तो शाम को सुरक्षित घर लौट आता है, क्योंकि भूलना मानवीय स्वभाव है और कठिन परिस्थितियों में सही निर्णय लेना परिपक्व व्यक्ति की पहचान है।