मोनिका भाम्भू कलाना

लेकिन इन गीतों के शब्द कई बार यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर ये किस तरह के मानस से उपजी हैं और क्या सहेजे हुए हैं। आमतौर पर ऐसे गीतों में बगैर किसी लाग-लपेट के महिलाओं के दिल की सीधी आवाज उनकी ही रोज की भाषा में भरी पाई जाती है। ग्रामीण जीवन का सरल रोजनामचा ऐसे गीतों में दृष्टि के अलग-अलग बिंदुओं से दिखता है। लोकगीतों को स्त्री और पुरुष दोनों ही भिन्न-भिन्न अवसरों पर गाते हैं, लेकिन मुख्य रूप से स्त्री स्वर ही इनकी पहचान रहा है। पुरुषों द्वारा गाए जाने वाले गीत भी कई बार खुद को स्त्री मान कर ही गाए जाते हैं।

लोकगीतों में स्त्री मन का विस्तृत चित्रण, उस क्षेत्र विशेष के नारी मन की इच्छाएं, उनके सोचने का तरीका और आदर्श, पारिवारिक व्यवस्था में उनकी महत्त्वपूर्ण स्थिति की झलक, पति प्रेम, उनकी शिकायतें और नाराजगी, फिक्र, विश्वास और समर्पण के सभी भावों को इन गीतों में सहज ही देखा जा सकता है। मानवीय मन और सामाजिक जीवन के तमाम भावों-अनुभावों का जैसा चलता प्रवाह इन गीतों में मिलता है, वैसा आम भाषा में कतई संभव नहीं हो सकता। गीतों की परंपरा दरअसल सभी जातियों, कबीलों और समूहों में मिलती है। लिखित साहित्य में आकर इनकी सहजता और प्राण तत्त्व काफी हद तक बदल जाता है।

रामचंद्र शुक्ल ने इस बारे में लिखा है, ‘किसी देश की काव्यधारा के मूल प्राकृतिक स्वरूप का परिचय हमें चिरकाल से चले आते हुए इन्हीं गीतों से मिल सकता है।’ इन गीतों में स्थानीय महिलाओं की आस्थाएं, विश्वास और प्रेरणाएं ही नहीं, उनके संशय, भ्रम, उधेड़बुन, उनके पीछे की अस्पष्टताएं, उलझनें, उनका संघर्ष सब इनमें परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते हैं। सामुदायिक जीवन की धुरी परिवार रूपी स्वप्न को बनाए रखने के लिए अपने व्यक्तित्व की आहुति दे देने की प्रेरणा महिलाओं को कैसे आदर्श के रूप में संस्कारों से मिलती है, यह भी इन गीतों को सुनकर समझा जा सकता है।

इनमें स्त्री का स्त्री से, स्त्री का पुरुष से और स्त्री का समाज के साथ और पालतू पशुओं सहित समस्त बाह्य जगत के साथ संवाद और लगाव का अद्भुत परिचय मिलता है। आश्चर्य यह है कि जो शब्द आमतौर पर प्रयोग में लेने पर अश्लील, भद्दे और अशिष्ट प्रतीत होते हैं, वही इन भावों के साथ अभिव्यक्त होकर लयपूर्ण और प्राकृतिक लगते हैं। घर-घर प्रचलित इन घरेलू गीतों में शृंगार और करुण दोनों रसों का स्वाभाविक विकास देखने को मिलता है।

दांपत्य जीवन ही नहीं, पारिवारिक व्यवस्था के सभी बुनियादी रिश्तों जैसे भाभी-ननद, देवर-भाभी, सास-बहू, जेठ-जेठानी, दामाद-ससुर, भाई-बहन सभी के खिंचाव, तनाव, परेशानियां, मजबूरियां दिखती हैं। इसके बावजूद उनके प्रति लगाव, अनुराग, प्यार, जिम्मेदारी के अहसास का हर स्थिति में बने रहना जैसे भाव इन गीतों में मिलते हैं। इसलिए इन गीतों को ग्रामीण जीवन का संपूर्ण और मौखिक कोश कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पिछले दशक में बड़े संगीत यंत्रों या डीजे के बढ़ते मोह ने इन गीतों के जीवट और अस्तित्व के लिए नया संघर्ष अवश्य उपस्थित किया है। समस्या यह है कि डीजे पर अश्लील गानों को भी सार्वजनिक तौर पर बजाने वाले आज के पढ़े-लिखे लोग आधुनिकता की झोंक में लोकगीतों को बगैर जाने-समझे ही फूहड़ मानने लगे हैं। यह सही है कि कुछ लोकगीत न शिष्ट भावों को लेकर चलते हैं न सभ्य-शिष्ट भाषा को, क्योंकि मानवीय अनुशासन से ज्यादा प्रकृति की अराजकता में ही ये पैदा होते हैं और फलते-फूलते हैं।

लोकगीत मानव के सामुदायिक-सामाजिक जीवन की पहचान हैं। इनका इतिहास मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा है। मनुष्य अकेला नहीं है, उसके सुख-दुख सब दूसरों से साझा हैं और इसी साझेपन के स्वप्न में लोकगीतों की रचना हुई। रचने की यह प्रक्रिया भी साझेपन और निरंतरता की मिसाल है। लोकगीत किसी एक के नहीं होकर सबके हैं। प्राचीन से लेकर वर्तमान काल तक के मनुष्य की यात्रा और स्वप्न इन गीतों में झलकते हैं। हर पीढ़ी अपना देय इनमें जोड़ देती है और अपने सपने आगे के लिए दर्ज कर देती है।

पिछले कुछ सालों से स्थानीय कलाकारों द्वारा डीजे पर पुराने लोकगीतों को नए तरीके से संगीतबद्ध करके प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे प्रस्तुतीकरण में न तो वह सहजता है और न ही प्रकृति से वैसा जुड़ाव, जो इन लोकगीतों का प्राणतत्त्व रहा है। हमें चाहिए कि हम इनके सादगी को बनाए रखते हुए अपने संस्कारों और आशा-निराशाओं को ठीक उसी तरह इनमें दर्ज करें जैसे बगैर किसी हस्तक्षेप के स्वाभाविक प्रक्रिया से अब तक दर्ज होती आई हैं।