आजादी से पहले हममें से ज्यादातर लोग अनपढ़ थे, लेकिन समाज और देशहित के बारे में भली-भांति जानते और मानते थे। कोई भी काम करने से पहले लोग अपना हित भले देखते थे, लेकिन साथ ही समाज और देश के हित का खयाल भी रखते थे। समाज हित के कामों की एक तरह से प्रतियोगिता होती थी। समाज-विरोधी काम चोरी-छिपे होते थे। मानव जीवन में ऊर्जा और मिठास बनाए रखने के लिए समय-समय पर त्योहार और उत्सव नियमित तौर पर मनाए जाते थे। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि उस मौज-मस्ती से न केवल अपना, बल्कि समाज और देश का अहित बिल्कुल न हो। एक विश्वास और था- ‘पहला सुख निरोगी काया।’ यानी हमारा शरीर बिल्कुल ठीक रहे। इसके साथ यह भी- ‘स्वस्थ दिमाग, स्वस्थ शरीर में रहता है।’
आज हममें ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे हैं। कायदे से हमें अपने हित के साथ समाज और देशहित की चिंता ज्यादा होनी चाहिए। मगर आमतौर पर इसका उलटा देखा जाता है। इस देश के ज्यादातर भाग में दिवाली सारे त्योहारों में बड़ा माना गया है। इस दिन पहनने-खाने के मामले में अलग-अलग वर्गों के बीच अपनी आर्थिक सीमा के चलते अंतर भले रहता हो, लेकिन सफाई के मामले में सभी एक दूसरे से बराबर रहते हैं। ज्यों-ज्यों दिवाली का त्योहार निकट आने लगता है, त्यों-त्यों हम लापरवाह होते चले जाते हैं। न अपने और न समाज और देश के हित के बारे में सोचते हैं। सफाई के बजाय प्रदूषण फैलाने का एक तरह से मुकाबला करते हैं। शिक्षित माता-पिता के बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, लेकिन मौज के लिए दशहरे के बाद से ही दिवाली के पटाखे फोड़ना शुरू कर देते हैं। सवाल है कि पटाखे खरीदने के लिए बच्चे पैसे कहां से लाते हैं? या तो मां-पिता खुद खरीदते हैं या फिर अपने लाडलों को इसके लिए पैसे देते हैं! क्या ऐसे अभिभावकों को अपने बच्चों के हित के बारे में जानकारी नहीं होती?
पटाखा फोड़ते ही कानफाड़ू आवाज के साथ ढेर सारा जहरीला धुआं निकलता है। कोई भी समझ सकता है कि यह जहरीला धुआं हवा में घुल जाता है और जब व्यक्ति सांस लेता है तो बारूद का जहर उसके भीतर चला जाता है। यानी पटाखे फोड़ने वाले पढ़े-लिखे से लेकर सभी लोग ऐसा करके अपनी हानि तो करते हैं, साथ ही समाज और देश को भी बड़ी हानि पहुंचाते हैं। हालत यह है कि दिवाली की रात जहरीले रसायनों वाली आतिशबाजी की होड़ लगी होती है। शिक्षित और जागरूक लोग भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते दिखते हैं।
यह कैसी शिक्षा है जो देश और समाज के हित को ताक पर रखना सिखाती है! दिवाली से अगली सुबह जब हम जले हुए पटाखों के अवशेष बिखरे देखते हैं तो पर्यावरण को लेकर चिंता होने लगती हैं। बारूद को कागजों की मोटी तह में लपेट कर पटाखे तैयार किए जाते हैं। स्कूलों में शिक्षक बच्चों को पढ़ाते हैं कि कागज पेड़ों को काट कर उनकी लुगदी से बनाए जाते हैं। यानी एक साल की दिवाली के लिए पटाखों के इंतजाम में न जाने कितने कागज इस्तेमाल होते हैं और इस तरह न जाने कितने पेड़ों की बलि चढ़ती है। दूसरी ओर, स्कूलों में यह भी पढ़ाया जाता है कि पेड़ हवा में ऑक्सीजन छोड़ते हैं। पेड़ कटे तो हवा में आॅक्सीजन की मात्रा घटी। यानी एक ओर पटाखे छोड़ कर हम हवा में प्रदूषण या जहरीले रसायन फैलाते हैं, दूसरी ओर पेड़ काट कर आॅक्सीजन की कमी पैदा करते हैं। यह हम किसके लिए करते हैं?
इसके अलावा, पटाखे न छोड़ने की सलाह हर साल आम रहती है, लेकिन बाजार में पटाखों की खरीद-बिक्री को देख कर अनुमान लगाया जा सकता है कि इस तरह कीसलाहों पर कितना अमल होता है। हैरानी की बात यह भी है कि ऐसा तब हो रहा है जब पटाखों के खिलाफ अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यक्रमों और कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ी है।
हाल ही में एक अदालत ने पटाखे फोड़ने पर पाबंदी लगाने से इनकार कर दिया है। अदालत के सामने कानूनी पहलू रहे होंगे। लेकिन धार्मिक भावनाओं के नाम पर हम न अपना और न समाज और देश के हित का खयाल रखना जरूरी समझेंगे। सवाल है कि क्या कोई हमें बाहर से आकर हमें समझाएगा कि हमारे लिए क्या फायदेमंद और नुकसानदेह है? जरूरत इस बात की है कि कम से कम हम अपने हित में खुद पर नियंत्रण रखें। सामाजिक संस्थाएं दिवाली से पहले समाज के सामने अपने सदस्यों के आचरण से उदाहरण पेश करें कि लोग हवा में जहर न घोलें, पटाके न फोड़ें। बल्कि खुशी मनाने के लिए दिवाली पर हर कोई एक-एक पेड़ लगा कर आबोहवा को स्वच्छ रखने के इंतजाम में भागीदारी करे। यह भी एक त्योहार ही होगा। तभी ‘पहला सुख निरोगी काया’ और ‘स्वस्थ दिमाग, स्वस्थ शरीर में रहता है’ जैसी धारणाएं हमारे जीवन का हिस्सा बनेंगी। (सुमेर चंद)