जब देश आजाद हुआ था तो पढ़े-लिखे लोगों की संख्या ज्यादा नहीं थी। इसलिए थोड़ा शिक्षित लोग भी सरकारी नौकरी पा जाते थे और अनपढ़ अपने काम-धंधे में लग जाते थे। महिलाओं को आमतौर पर न इतना पढ़ने का मौका मिलता था, न वे नौकरी में जाती थीं। उनके जिम्मे घर-गृहस्थी संभालना ही मुख्य काम था। परिवारों में आज की तरह अच्छा खाने को भले कम था, मगर सुख-शांति रहती थी। कोई बेरोजगारी का रोना नहीं रोता था। मगर अब हालत यह है कि कितनी भी पढ़ाई-लिखाई कर ली जाए, रोजगार मिलना आसान नहीं। जब तक रोजगार नहीं मिलता, नौकरी के लिए आवेदन देना और परीक्षाओं के लिए जगह-जगह जाना मां-बाप के लिए बड़ा बोझ बन चुका है। दुख की बात यह है कि हमारा पढ़ा-लिखा नौजवान आज स्वरोजगार नहीं अपनाना चाहता। एक खास तरह के मनोवैज्ञानिक सोच के चलते वे अपने हाथों से किए जाने वाले काम को हीन मानने लगे हैं। रही-सही कसर सरकार की नीतियों ने पूरी कर दी है।
पहले हर नगर में कई चौराहों पर अपने औजार लिए बहुत सारे मजदूर सुबह ही आ जाते थे। घर बनाने के काम में जिन्हें जरूरत होती थी, खासकर नींव खुदवाने के लिए, वे वहां से मजदूरों को ले जाते थे। लेकिन अब चौराहों पर वैसे दृश्य शायद ही मिलते हैं। वे मजदूर गायब नहीं हो गए हैं, बल्कि जेसीबी मशीन ने उनका रोजगार हड़प लिया है। यह मशीन कम से कम बीस-तीस मजदूरों का काम हड़प जाती है। विकास और तकनीक ठीक है, लेकिन क्या यह सरकारों की नजर में अन्याय और बेरोजगारी बढ़ाने का कारोबार नहीं है! खेती करने का सबसे पहला औजार होता था हल। भारत के तमाम गांवों में बढ़ई वह हल बना कर किसानों को देता था और इससे उसका रोजगार चलता था। हल में लोहे की कूस लगाई जाती थी, जो दो-चार दिनों के बाद घिस जाती थी और उसे तेज करना पड़ता था। यह काम गांव में लोहार करते थे। मगर ट्रैक्टर ने देखते-देखते गांवों के लाखों हल और कूस बनाने वालों की रोजी छीन ली। इसी तरह कंबाइन मशीन ने न केवल कटाई, गाही और बरासाई के काम से पेट भरने वालों को बेरोजगार कर दिया, बल्कि थ्रेसर बनाने वाले कारखाने भी बंद करा दिए। क्या सरकार को देहाती दस्तकारों का धंधा चौपट होने का अनुमान नहीं था और क्या वह इनके लिए किसी वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था नहीं कर सकती थी?
सब जानते हैं कि गरमी के मौसम में कुम्हार मिट्टी के मटके बना कर लोगों को देता था और उससे उसकी रोटी चलती थी। मगर फ्रिज और पानी को ठंडा करने वाले उपकरणों ने इस धंधे को भी खत्म कर दिया। बाजार में मिठाइयां छोटी-छोटी टोकरियों में बिकती थीं। लाखों लोग शहतूत की शाखाओं से टोकरियां बना और उन्हें बेच कर गुजर-बसर करते थे। मगर गत्ते के डिब्बे इन सबको हड़प गए। पहले सड़कों के किनारे हर दस किलोमीटर पर एक बोर्ड लगा होता था, जिस पर मेट का नाम लिखा होता था। दरअसल, पक्की सड़क के दोनों तरफ दो मीटर तक कच्ची जगह भी ऐसी रखी जाती थी, जिस पर सड़क का पानी उतर कर बह जाता था और सड़कें टूटती नहीं थीं। इस जगह को ठीक रखने का काम मेट करवाता था। उसके पास दस मजदूर होते थे। लाखों लोगों को काम मिलता था। मगर अब सारी समस्या का हल जेसीबी मशीन ने कर दिया है और मजदूरी करके जीने वाले लोग दूसरे कामों की आस लगाते हैं।
कहा जाता है कि बंदर, रीछ या सांपों का खेल दिखाना इन जीवों पर अत्याचार करना है। हो सकता है कि यह सही हो। लेकिन कुछ लोगों के जीवन का जरिया ये खेल अगर अत्याचार थे, तो घोड़े या ऊंट आदि जानवरों का विवाह, सवारी या मनोरंजन के लिए इस्तेमाल क्या है? कुत्तों को जंजीर में बांध कर घर में रखवाली में क्यों लगा दिया जाता है?
सवाल है कि मजदूरों का रोजगार छीनने वाली तमाम आधुनिक मशीनें देश में कहां से आर्इं? क्या ये जबर्दस्ती देश में घुस गर्इं? सच यह है कि हमारी नीतियों ने उनके विशालकाय कारोबार चलाने के लिए अपने गरीब-वंचित वर्गों के लोगों के हाथों से रोजगार छीन लिया और ‘उनके’ कारखानों के लिए सस्ते मजदूर देने के स्थितियां पैदा कर देश को बेरोजगारों का देश बना दिया। रही-सही कसर पढ़े-लिखे लोगों के लिए रोजगार का अभाव पैदा कर उन्हें भी दूसरे की कमाई पर पलने वाला बना दिया। देश के नीति-निर्माता दिन-रात देश के निर्माण के नाम पर पीढ़ियों के भविष्य को बर्बाद कर रहे हैं। हमारे नेता भाषण देते हैं कि श्रम प्रतिष्ठा देता है, लेकिन श्रम को प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने क्या किया है, यह आज देश में बेरोजगारी की व्यापक समस्या बताती है।
सुमेर चंद
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