प्रदीप कुमार
जनसत्ता 1 अक्तूबर, 2014: हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के सम्मान में उनके जन्मदिन उनतीस अगस्त को खेल दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य देश भर में खेल और खिलाड़ियों के प्रति सम्मान भाव जागृत करना और खेल भावना को मजबूत करना है। मगर लगता है, यह आयोजन एक रस्म अदायगी भर बन कर रह गया है। उस दिन राष्ट्रपति कुछ खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित करते हैं। यह सम्मान समारोह भी विवादों से दूर नहीं रह पाता।
रांची से मेरे सहयोगी ने बताया कि कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के एथलीट खेल दिवस के मौके पर सांकेतिक विरोध प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर झाड़ू लगा और जूते पॉलिश कर रहे हैं। मैंने उससे विजुअल के साथ खबर मंगा ली। चित्रों को देखा तो चौंक गया। विरोध प्रदर्शन करने वालों में दो एथलीट ऐसी नजर आर्इं, जिन्होंने ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों का ट्रैक सूट पहना हुआ था। यानी वे ग्लासगो में हाल में संपन्न हुए राष्ट्रमंडल खेलों में हिस्सा ले चुकी थीं। एक का नाम लवली चौबे है और दूसरी का रूपा रानी टिर्की। दोनों लॉन बॉल की अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ीं हैं। भारत के लिए दिल्ली और ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में हिस्सा ले चुकी हैं। लवली चौबे भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में सात पदक जीत चुकी हैं, तो रूपा रानी टिर्की के नाम चार अंतरराष्ट्रीय पदक हैं। ये दोनों एथलीट इसलिए सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रही थीं कि कई साल के करिअर के बाद भी उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली है।
लवली चौबे बेहद गुस्से में कहती हैं कि उन्होंने अपना जीवन खेल को समर्पित कर दिया और अब वे नौकरी के बिना अपने मां-बाप पर बोझ बन चुकी हैं। नौकरी नहीं है, तो शादी भी नहीं हो रही है। जब मां-बाप शादी के लिए जोर दे रहे थे तब उन्हें खेल में कुछ नाम कमाने की चाहत थी। अब खेल ने उन्हें अधर में ला पटका है। रूपा रानी छब्बीस साल की हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ी-लिखी हैं। लॉन बॉल में भारत की उत्कृष्ट खिलाड़ियों में शुमार हैं, लेकिन नौकरी नहीं मिलने का दंश ऐसा है कि वे फफक कर रोने लगती हैं। तारीफ करनी होगी लवली चौबे और रूपा रानी टिर्की जैसी एथलीटों की, जिन्होंने उस खेल में भारत को एक मुकाम दिया है, जिसके लिए देश में आधारभूत सुविधाओं तक का अभाव है। ये दोनों एथलीट रांची के विरोध प्रदर्शन में करीब सौ अन्य एथलीटों के साथ हिस्सा ले रही थीं। इनमें ताइक्वांडो, लॉन बॉल और हॉकी जैसे खेलों के खिलाड़ी शामिल थे, जिन्हें शिकायत है कि विभिन्न खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली।
इन लोगों की तकलीफों को देखने-सुनने के साथ मुझे कई लोगों के चेहरे याद आ गए। हमारे पड़ोस में रहने वाले एक परिवार के चार भाई क्रिकेट में इसलिए दिन-रात डूबे रहते थे कि उन्हें इसकी बदौलत रेलवे में नौकरी हासिल करनी थी। इनमें एक को बाद में भारतीय सेना में नौकरी मिली, लेकिन क्रिकेट की बदौलत नहीं। इन चार भाइयों में सबसे बेहतरीन क्रिकेटर को बाद में मेडिकल रिप्रजेंटेटिव का काम करना पड़ा। वहीं सालों तक अंतर जिला क्रिकेट प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ गेंदबाज रहे शख्स को आजीविका के लिए किराने की दुकान चलानी पड़ी। मुझे लगता था कि राष्ट्रीय स्तर के एथलीट और खिलाड़ियों को शायद तुरंत नौकरी मिल जाती होगी।
पिछले कुछ सालों में यह जरूर हुआ है कि चुनिंदा खेलों की चमक-दमक इतनी बढ़ गई है कि खेल आयोजन लीग के जमाने में पहुंच गए, जहां क्रिकेट से लेकर कबड््डी तक के खिलाड़ियों की आमदनी काफी बढ़ गई। ओलंपिक जैसे खेलों में एक मेडल जीतने पर इनाम में करोड़ों की बरसात होने लगी है। क्रिकेट का तो सामान्य खिलाड़ी भी करोड़ों में खेलने लगा है। लेकिन इस चमक-दमक के दूसरी ओर की दुनिया बदरंग है। खिलाड़ियों को मिलने वाली सरकारी नौकरियों के अवसर सीमित होते जा रहे हैं। सरकारी नौकरियों में राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के लिए दो प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था जरूर है, लेकिन रिक्तियां होने के बावजूद लंबे समय से भर्तियां नहीं हो रही हैं। खिलाड़ियों के लिए कभी बेहतर माने जाने वाले रेलवे, बैंक और पेट्रोलियम उपक्रमों में भी अब इक्का-दुक्का खिलाड़ियों को नियुक्ति मिल पाती है।
अनुबंध प्रथा ने जिस तरह समाज के दूसरे वर्गों के रोजगार को प्रभावित किया है, वैसे ही खिलाड़ियों के लिए अवसरों को भी कम कर दिया है। पूर्व ओलंपियन हॉकी खिलाड़ी जफर इकबाल से मैंने पूछा तो उनका कहना था कि सार्वजनिक उपक्रम अब खिलाड़ियों को नियमित नौकरी देने से बचते हैं, वे अपने कार्यक्रम में किसी भी स्टार खिलाड़ी को मुंहमांगी कीमत देकर घंटे-दो घंटे के लिए बुलाने में ज्यादा यकीन करने लगे हैं।
इस माहौल में हम हर साल रस्मी तौर पर खेल दिवस तो मना सकते हैं, लेकिन खेल संस्कृति अब भी काफी दूर की बात है।
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