पूरे चौरानबे कड़ियों के बाद पटाक्षेप की घोषणा होने पर भी उसके बेशुमार भक्त विश्वास नहीं कर पाए थे कि दूरदर्शन पर हर सप्ताह ‘मैं समय हूं’ कहती गंभीर आवाज का समय भी बीत जाएगा। 1982 में महात्मा गांधी की जन्मतिथि से शुरू होकर मानो उसे भी बापू जैसा अमरत्व मिल गया था। गांधीजी ने अंग्रेजी हुकूमत से छटपटाते पूरे देश को भावनात्मक एकता के धागे में पिरो दिया था। दशकों बाद दूरदर्शन के परदे पर हर सप्ताह प्रसारित होने वाले धारावाहिक महाभारत ने एक बार फिर वैसी ही भावनात्मक एकता जगा दी थी। कुछ इस अंदाज से कि लगता था उसकी हर कड़ी को देखे बिना घरों में चूल्हे नहीं जलेंगे, सड़कों पर गाड़ियां नहीं दौड़ेंगी और बच्चों को पूरे एक घंटे चुपचाप बैठने के लिए कहना नहीं पड़ेगा।
आगे बैठे बच्चों से लेकर पीछे समय से पहले आकर जम जाने वाले बुजुर्गों तक हर कोई, हर कड़ी के हर पल को तन्मय होकर मन में उतार लेने को आतुर रहता था। निर्देशक रवि चोपड़ा से पटकथा लिखने की भारी जिम्मेदारी राही मासूम रजा ने इसी भरोसे के साथ ली थी कि उनकी लेखनी हजारों वर्षों से भारत के जनमानस में संजो कर रखी हुई इस अद्भुत कथा को आज के युग के लिए भी प्रासंगिक बनाने में पूरी तरह सक्षम होगी।
महाभारत (रामायण भी) धारावाहिक को दूरदर्शन के करोड़ों दर्शकों के मन मस्तिष्क पर छा जाने का चमत्कार दिखाए हुए पूरे बत्तीस वर्ष बीत चुके हैं। उन्हें फिर से प्रसारित करने का निर्णय यह सोचकर लिया गया होगा कि वे कोरोना विषाणु से त्रस्त जनमानस के भयाकुल मन को शांत कर सकेंगे। दोनों धारावाहिक भारतीय संस्कृति के उन शाश्वत मूल्यों को फिर से स्थापित करेंगे, जो सदियों से परीक्षा की घड़ियों में हमें मजबूत बनाते आए हैं।
लेकिन महाभारत धारावाहिक का प्रसारण आज से बत्तीस वर्ष पहले समाप्त होने से लेकर आज तक दुनिया की नदियों में जाने कितना पानी बह चुका है। बदले वक्त की पहली निशानी यही तो है कि अब गंगा या टेम्स नदी में जाने कितना पानी बह चुका होगा कहना अपर्याप्त लगता है। अब हमारी नजरें कुछ भी देखने के लिए उठती हैं तो पूरे संसार को समेट लेती हैं। वैश्वीकरण के इस युग में महाभारत और रामायण जैसे धारावाहिकों की खुराक पर पली-बढ़ी पीढ़ी अधेड़ हो चुकी है। उसके बाद वाली पीढ़ी वैसा कच्चा घड़ा नहीं, जिस पर जो निशान डाले जाएं वे पक्के पड़ जाएं।
मन ने कहा ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ और मैं ‘टीन्स’ की दहलीज पार कर चुकी और उसे पार करने को तत्पर अपनी पौत्रियों से महाभारत धारावाहिक के विषय में चर्चा करने लगा। दोनों बच्चियां इन धारावाहिकों से परिचित थीं, जो उनके शब्दों में अपने जमाने की हैरी पॉटर सीरीज थीं। अपनी पसंद की दर्जनों फिल्मों और वेब सीरीज फिल्मों के आगे दूरदर्शन पर कोई धारावाहिक देखने में उन्हें कितनी रुचि होगी इसका आभास था मुझे। पर महाभारत देखने के लिए वे स्वत:प्रेरित निकलीं। स्कूल बंद होने का असली आनंद तो रात में बहुत देर से सोने और सुबह जी भर कर देर से उठने में था अत: सुबह नौ बजे वाली रामायण की तुलना में महाभारत का बारह बजे का समय अधिक सुविधाजनक था।
वैसे तो दोनों धारावाहिक शाम को भी आते हैं, लेकिन शुरुआत एक से करने का सुझाव देने में मुझे व्यावहारिक चतुराई दिखी। वही तय हुआ और महाभारत की आरंभिक कड़ियां मैंने दोनों बच्चों के साथ देखीं। पहली दो कड़ियों मे उनके मम्मी पापा भी साथ बैठे, लेकिन जब उन्हें लगातार भ्राताश्री, माताश्री जैसे संबोधनों से लेकर हर दूसरे वाक्य में कुछ समझाना पड़ा तो उनकी दयनीय शक्ल देख कर मैंने आश्वस्त किया कि मैं बच्चों के साथ महाभारत देखूंगा और वे अपने कमरे में नेटफ्लिक्स देख सकते हैं। लेकिन बच्चों के सवालों और टिप्पणियों का अंत न था।
छोटी को लगा कि गांधारी खुद अपनी आंख पर पट्टी न बांधती, तो अंधे पति धृतराष्ट्र की अधिक सहायता कर पाती। बड़ी पौत्री को बहुत आश्चर्य हुआ कि स्वयंवर में पौरुष और कौशल से द्रौपदी का हाथ जीतने वाला इतना भीरु क्यों निकला कि मां की गलतफहमी दूर नहीं कर पाया कि द्रौपदी बांटकर खाने वाला सामान नहीं थी। राजकुल के स्त्री पात्रों के स्वर्ण और रत्नजटित आभूषणों की टक्कर के आभूषण पुरुष पात्रों के शरीर पर भी देख कर पहले बच्चियां हंसती रहीं, फिर मुझसे पूछ बैठीं कि उनके भृत्य आमात्य उघारे बदन रहें।
इतनी असमानता क्यों थी उस महान सांस्कृतिक परिवेश में जिसकी झलक पाकर उनसे आशा की जाती थी कि वे अपनी गौरवमयी परंपराओं पर अभिमान करेंगी। प्रश्नों का अंत नहीं था और अभी लगभग नब्बे कड़ियां बाकी थीं। मेरे सामने यही विकल्प था कि आगे की शिक्षा के लिए उन्हें किसी गुरुकुल में भेजूं या उनके साथ ऐसे धारावाहिक देखूं जिससे वे जुड़ सकें। शायद ‘समय’ अब वह समय नहीं रहा जिसका भारी आवाज में अपना परिचय देना उन्हें प्रासंगिक लगे।