मोनिका अग्रवाल

अमर्यादित और संयमित भाषा बोलना भी एक कला है। यह कला मानव जीवन में अहम और माननीय व्यवहार का एक प्रभावी यंत्र है। लेकिन यह कला काम बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है। किसी-किसी की भाषा इतनी नीरस और उबाऊ और बोझिल होती है कि या तो सुनने वाला उठ कर चला जाता है या सो जाता है। अनाप-शनाप, बेतुका और बनावटी बोलने का मतलब काम बिगाड़ना है। किसी की भाषा इतनी मधुर और जीवंत होती है कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है। किसी ने कहा भी है- ‘कुदरत को नापसंद है सख्ती बयान में, इससे नहीं लगाई है हड्डी जुबान में।’ लेकिन ऐसा लगता है कि ‘बिग बॉस’ जैसे टीवी कार्यक्रमों में किसी भी प्रतिभागी की जुबान पर लगाम नहीं। आजकल इस ‘रियलिटी शो’ में जैसे दृश्य और जैसी अशिष्ट भाषा दिखाई दे रही है, वह औचित्य की हदों को पार कर रही है। अशोभनीय दृश्यों की और गाली-गलौज का पैमाना कुछ इस कदर बढ़ गया है कि एक बड़ी फिक्र दिमाग पर सवार हो जाती है।

ऐसा लगता है कि सब कुछ ताक पर रख दिया गया है। पहले भी टीवी चैनल थे। लेकिन क्या उन पर इस तरह के कार्यक्रम बेलगाम होते थे? ‘बुनियाद’ धारावाहिक में नए जमाने की पीढ़ी को भी दिखाया गया था। लेकिन हर चीज को पेश करने, बात कहने का और कुछ भी बोेलने का सलीका था। यानी एक मानसिक तौर पर परिपक्व और संयत व्यक्तित्व का तरीका। टीवी देखना किसी का अपना निर्णय है। लेकिन एक सभ्य और मानवीय समाज के लिहाज से कोई मर्यादा होती है। जब हम खुद संयमित आचार-व्यवहार और मधुर भाषा को अपने जीवन में उतारेंगे, तभी हम आने वाली पीढ़ी को कुछ बेहतर दे सकते हैं।
लेकिन सिर्फ मधुर भाषा पर्याप्त नहीं है। ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ जैसी स्थिति भी हो सकती है।

इस कला के साथ दूसरी अनेक विशेषताएं और अर्हताएं भी अपेक्षित हैं। यों तो उपदेश देने, सीख देने वालों की कोई कमी नहीं, लेकिन कमी है तो केवल आचरण में लाने वालों की। बोलने का क्षेत्र व्यापक है। इसके अंतर्गत क्या बोलना है, क्या नहीं बोलना है, कितना, कैसे और कब बोलना है या फिर कब चुप रहना है, सब कुछ आता है। कुछ बातें कुछ तथ्य, कुछ सच्चाइयां इतनी कटु होती हैं कि उन पर अघोषित प्रतिबंध रहता है। जिस बात को बोलने से किसी का आत्मविश्वास टूट जाए, आपस में दूरियां बढ़ जाएं या समाज में वैमनस्यता फैल जाए, ऐसा सच, ऐसी भाषा किस काम की?

हर बात को बोलने की अपनी मर्यादा होती है। इसीलिए कहा गया है कि समय के तराजू पर शब्दों को तोल कर बोलना आवश्यक है। बोलने का ढंग, अंदाज और शैली अपना महत्त्व रखते हैं। उम्र, पद, रिश्ते आदि के कारण शैली में लचीलापन जरूरी है। कुछ अवसर ऐसे भी होते हैं, जब चुप रहना उचित होता है। मौन की भी अपनी एक वाक्शक्ति होती है। कभी-कभी मौन हजार शब्दों पर भी भारी पड़ता है। आज इस दौर में सब ताक पर है। कुछ टीवी चैनलों और कार्यक्रमों की वजह से इस तरह की मर्यादा टूट चुकी है और भाषा का विध्वंस हो रहा है। किसी धारावाहिक को सस्ते प्रेमालाप को बेच कर टीआरपी कमाना है तो किसी धारावाहिक में घर की महिला के घर की ही महिलाओं के लिए साजिशें दिखानी है। किसी चैनल पर हास्य कलाकार अपने शो में भद्दे और द्विअर्थी संवाद परोसने हैं और साथ ही मर्यादित भाषा की पैरवी का पाखंड करते दिख जाएंगे।

लेकिन क्या रोजमर्रा की बोलचाल की भाषा मधुर और मर्यादित है? बोल तो कोई भी सकता है, लेकिन तरीके और सलीके से, उमंग-तरंग के साथ नपा-तुला, सीधा-साधा बोलना मायने रखता है। व्यक्तित्व विकास के लिए भाषा का महत्त्व तो है ही, पर इसके साथ-साथ वाणी की मधुरता भी उतनी ही आवश्यक है। यह वाणी ही है जिससे किसी भी मनुष्य के स्वाभाव का अंदाजा होता है। चेहरे से अक्सर जो लोग सौम्य या आक्रामक दिखाई देते हैं, असल जिंदगी में उनका स्वभाव कुछ और ही होता है।

भाषा वह है, जिससे संपूर्णता में अभिव्यक्ति हृदय के करीब आभास हो, बुद्धि का प्रकाश, जोश और आत्मीयता हो, न कि निर्जीव अकड़ और मात्र आक्रोश हो। भाषा वह है जिसमें जोश के साथ होश हो। वह नहीं, जिसमें आवाज खटकती हो, चुभती हो। बल्कि वह है जो खनकती हो, रचती हो। भाषा हमेशा संवाद है, सहकार हो, आत्मीयता हो। भाषा का सुनने से भी गहरा संबंध है। जो अच्छा सुन सकता है, बोल भी सकता है। अच्छा सुनने वाला दूसरे की बात को बीच में नहीं काटता। अच्छा सुनने वाला धैर्य और संयम आदि गुण कूट-कूट कर भरे होते हैं। भाषा में अंतर होने से व्यवहार भी अच्छा या बुरा लगने लगता है। इस सृष्टि में ज्यादातर झगड़े वाणी के संयम की कमी और जुबान के गलत प्रयोग के कारण होते हैं। जुबान का सही प्रयोग जहां जरूरी है, भाषा पर पकड़, व्याकरण की शुद्धता और त्रुटिरहित उच्चारण बोलने में चार चांद लगाते हैं।