अक्सर घरेलू महिलाओं को नौकरीपेशा महिलाओं के मुकाबले कमतर आंका जाता है। यों समझा जाता है कि ऐसी महिलाएं जरूर कम-पढ़ी लिखी होंगी। कहीं अच्छी नौकरी नहीं कर सकती होंगी, इसीलिए सिर्फ घर के काम संभालती हैं। अब वे चूंकि सिर्फ घर के काम करती हैं और उन्हें बाहर निकलने का मौका कम ही मिल पता है तो बाहर की दुनिया से उनका नाता कम होता होगा, इसलिए उनकी बातें भी घर, परिवार, बच्चे, रिश्तेदारी, नए व्यंजन या सौंदर्य प्रसाधन तक सीमित होती होंगी। उनकी दुनिया किटी पार्टी के दायरों में ही सिमटी हुई होगी। वे टीवी पर आने वाले सास-बहू जैसे सीरियल ही देखती होंगी और आपस में मिलने पर इन्हीं से संबंधित बातें करती होंगी। महिलाओं को लेकर इस तरह की पारंपरिक सोच गलत है और यह बात मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस की है। यहां तक कि कुछ समय पहले राष्ट्रीय जनगणना में उन्हें कैदी, भिखारी और वेश्याओं के साथ गैर-उत्पादक की श्रेणी में डाल दिया गया था क्योंकि वे कामगार नहीं हैं और कोई ऐसा काम नहीं कर रहीं, जिससे धनोपार्जन हो और हमारी अर्थव्यवस्था को मदद मिले। मसलन, वे सिर्फ हाथों से मशीन की तरह काम करना जानती हैं; दिमाग के काम करना उन्हें कम ही आता है और कंप्यूटर चलाने जैसी चीजों से ये दूर भागती हैं। यह एक सामान्य पितृसत्तात्मक समाज में पलते मानस के सहारे चलने वाली धारणा थी, जिस पर काफी तीखी आपत्ति सामने आई। यही वजह थी कि घरेलू स्त्रियों को जनगणना में गैर-उत्पादक की श्रेणी में डालने की बात पर सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया था और इस पर कड़ी टिप्पणी की थी।
इसी तरह की धारणाओं का विस्तार हर जगह देखा जाता है। अगर हम गौर करें तो पाएंगे कि टीवी धारावाहिक ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ में दया भाभी को एक बुद्धू घरेलू महिला की तरह पेश किया गया है। यह माना जा सकता है कि वह एक टीवी धारावाहिक और उसकी कहानी है, लेकिन उसके चरित्र भी कहीं न कहीं हमारे आसपास के वातावरण से ही लिए जाते हैं। हालांकि उसी सीरियल में बबिताजी जैसी स्मार्ट किरदार भी हैं। मैं रोज शाम को कॉलोनी के पार्क में टहलने जाती हूं। रोजाना वहां जाने के क्रम में मेरा एक समूह जैसा बन गया है, जिसमें युवा से लेकर कुछ बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल हैं जो आमतौर पर घरेलू हैं। इनमें से ज्यादातर ने स्नातक और स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई की हुई है। इन सबने शादी के बाद अपनी मर्जी से नौकरी करने के बजाय घर में रहना ज्यादा पसंद किया। हम हर शाम पार्क में कुछ देर सैर करते हैं। उसके बाद थोड़ी देर बैठ कर बातें करते हैं। हमारी बातों के विषय अमूमन राजनीति, पुरानी और नई फिल्में, समसामयिक मुद्दे, स्वास्थ्य, क्रिकेट आदि से जुड़े होते हैं। घर परिवार और टीवी धारावाहिकों की भी बातें होती हैं।इस दौरान मैंने महसूस किया कि समूह की बुजुर्ग स्त्रियां बहुत ही सधी हुई भाषा में हर विषय पर अपनी राय रखती हैं, चाहे वह राजनीति हो या खेल। उनकी राय वाकई वजनदार होती हैं। साथ ही किसी भी विषय पर उनकी जानकारी भी हमसे बेहतर होती है। यहां तक कि उनकी भाषा को भी मैंने अपनी भाषा से बेहतर पाया, फिर चाहे वह हिंदी हो या अंग्रेजी। कई महिलाएं तो उर्दू के भी कई शब्द सहजता से इस्तेमाल करती हैं। ये महिलाएं फेसबुक और वाट्सऐप का भी बखूबी इस्तेमाल करती हैं और उसकी अहमियत भी अच्छी तरह समझती हैं।
कुछ समय पहले दिल्ली में हुए नगर निगम चुनाव में किस उम्मीदवार को वोट देना है और क्यों देना है, इसे लेकर वे पूरी तरह जागरूक थीं। जब मैंने उनसे पूछा कि आपने इतनी बेहतर जानकारी और भाषा कहां से हासिल की… क्या आप किसी नौकरी से रिटायर हुई हैं, तो उन्होंने बताया कि हमने नौकरी तो कभी नहीं की, मगर अपना ज्ञान बढ़ाने का मौका कभी नहीं छोड़ा। ज्ञान तो हमारे आसपास बिखरा पड़ा है। कहीं से भी बटोर लो, फिर चाहे वह टीवी हो, रेडियो हो, अखबार हो, सोशल मीडिया हो या तुम जैसे बच्चों की सोहबत ही क्यों न हो! चाहे वह घरेलू स्त्री हो या नौकरीपेशा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह तो ज्ञान प्राप्त करने की भूख है जो ज्यादा से ज्यादा पढ़ने और सामाजिक होने के लिए प्रेरित करती है।
सच कहा था उन्होंने। व्यक्ति के नौकरीपेशा या घरेलू होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल तो घर बैठे ही ज्ञान बढ़ाने के ढेरों साधन मौजूद हैं। फिर चाहे वह सोशल मीडिया हो या टीवी। अगर मन में सीखने की ललक और इच्छाशक्ति हो तो बस कदम बढ़ाने की जरूरत है। फिर सारा जहां कदमों में है!
