आजकल वक्त डरावना लगने लगा है। ऐसा लगता है कि परस्पर विश्वास कहीं खो गया है। निकटतम रिश्ते भी संदेह के घेरे में रहते हैं। हर अगले रोज खबरों की दुनिया हत्या, बलात्कार, लूट-खसोट जैसे अपराध या आगजनी को परोसती है। कलेजा दहला देने वाली खबरें पढ़-सुन कर एक आम आदमी डरता हुआ पड़ोसी को भी शक की नजर से देखता है। हालांकि छलने वाला कोई अपना भी हो सकता है। लेकिन अपराधों का न तो कोई नियत स्थान है और न विशेष समय। इसके अलावा किसी के द्वारा किया गया कोई कुकृत्य अपराध की श्रेणी में आ भी पाएगा या नहीं, यह भी तय नहीं। करीब एक महीने पहले मेरे यहां एक नई घरेलू सहायिका आई। लखनऊ के किसी गांव से पूरा परिवार एनसीआर में आ बसा है।

मां अपनी तीन बेटियों के साथ पहले दिन बात करने आर्इं। मां के अलावा दोनों बेटियां भी काम के लिए तैयार थीं। यह हमें तय करना था। मैंने बड़ी विवाहित लड़की को काम करने के लिए कह दिया। छोटी आठ-नौ साल की और उससे छोटी पांच साल की थी। दो दिन बड़ी लड़की काम पर आई, लेकिन तीसरे दिन मैंने दरवाजे पर छोटी लड़की को पाया। मैंने पूछा कि तुम्हारी बहन कहां है, तुम क्यों आई हो? मैंने उस दिन भी कहा था न कि इतने छोटे बच्चे काम नहीं करते!
वह मेरे सवालों से सकपका गई। भाग कर झाड़ू उठा लाई और जल्दी-जल्दी लगाने लगी।

मैंने उसे पकड़ कर कुर्सी पर बिठाया और फिर पूछा- ‘अब बताओ… तुम्हारी बहन या मां कहां है?’ उसने अपनी मासूम आंखें उठार्इं और कहा कि कल रात जीजा ने बहन को बहुत मारा और आज मां को बुखार है, इसलिए मुझे आना पड़ा। मैंने उसे खाना खिला कर वापस भेज दिया। अगले दिन उसकी मां आई। उसने शिकायती लहजे में कहा- ‘दीदी आपने उर्वशी को वापस क्यों भेज दिया! कभी न कभी तो उसको भी काम पर आना ही पड़ेगा।’ वह मेरे बिना पूछे खुलती जा रही थी- ‘आपने कहा था कि उर्वशी को पढ़ाना चाहिए। ऐसी कौन मां होगी जो अपनी संतान को खुश नहीं देखना चाहती। मैं भी क्या करूं! हमारे बच्चे काम नही करेंगे तो खाएंगे क्या? गांव से मैं अपनी मर्जी से नहीं आई। चार बेटियों की मां बहुत मजबूर हो जाती है। गांव में वृद्ध सास-ससुर हैं। पति की मौत हुई तब से गांव में जीना मुश्किल हो गया। खेत-खलिहान सब बिक चुके। बड़ी बेटी पूनम का पति भी कोई काम-धाम नहीं करता।’

मैं निरुत्तर थी। मैं कुछ समझाती तो भी भूख अपने सामने पहले केवल रोटी पहचानती है, शिक्षा नहीं। आज का समय ही ऐसा है कि जिसको छू लिया जाए, वही दर्द से कराह उठता है। एक दिन मैंने पूनम की मां को समझाते हुए कहा कि अगर कोशिश की जाए तो उसकी दोनों छोटी बेटियों की किस्मत संवर सकती है। दिल्ली में ऐसी कई स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो उनकी शिक्षा का खर्चा उठा सकती हैं। लेकिन मेरी आशा के विपरीत पूनम की मां में कोई उत्साह नहीं जगा। खैर, पिछले सप्ताह मैंने पूनम से उसकी बहन उर्वशी के बारे में पूछा कि वह कैसी है। पता चला तीन दिनों से वह भयंकर पेट दर्द से तड़प रही थी। मैने पूछा कि डॉक्टर को दिखाया था! उसने बताया कि डॉक्टर को दिखाया था, लेकिन उन्हें भी कुछ भी समझ में नहीं आया। कल हमने उसे गांव भिजवा दिया। दो दिन बाद पूनम ने भी काम छोड़ दिया। अगले दिन नशेड़ी-सा दिखने वाला व्यक्ति पूनम के काम के पैसे लेने आया। तब से मन सशंकित है। क्या सचमुच उर्वशी गांव चली गई होगी या फिर यह मेरी उनके प्रति अतिरिक्त चिंता के कारण किए जाने वाले सवालों से बचने का कोई बहाना है। उर्वशी अपनी बहन के भी घर का काम करती थी। मन अनेक डर और संदेह के घेरे बना रहा है। छोटी बच्चियां कमजोर होने के कारण दुष्चक्र का अधिक शिकार बनती हैं!

तब से अब तक जब भी मैं कोई आठ-नौ साल की बच्ची देखती हूं तो उसमें उर्वशी को तलाशती हूं। बाल मजदूरी अपराध है। बच्चों को उचित शिक्षा और भोजन मिलना चाहिए। ऐसी बातें जुबान से फिसल कर हवा हो जाने वाले जुमले हैं। कानून बनते हैं और फाइलों में दब कर रह जाते हैं। वास्तविकता यह है कि आज हर घर में पति-पत्नी कामकाजी हैं। किसी बड़ी औरत को काम पर रखने की जगह पर वे चाहते हैं कि कोई छोटी बच्ची मिल जाए जो सारा दिन उनके घर पर रहे और अन्य कामों के अलावा उनके बच्चों का भी ध्यान रखे। गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद और गुड़गांव सरीखे एनसीआर में बहुराष्ट्रीय कंपनियां साथ में बहुमंजिला इमारतें भी लेकर आती हैं। इन्हीं के साए में हजारों झुग्गी-झोंपड़ियां पनपती रहती हैं। हर सुबह मैं कई उर्वशियों और माधुरियों को काम पर जुटते देखती हूं। यह विडंबना ही है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा इन इलाकों में मुझे मुंह चिढ़ाता रहता रहता है।