जब बच्ची थी तो गलती से भी परिवार में से किसी सदस्य का पांव मुझसे या घर के किसी भी बच्ची से छू जाता तो वह सदस्य हमें प्रणाम कर क्षमा मांग लेता था। दादी बताया करती थी कि बच्ची साक्षात देवी होती है। पैरों से उनको छू देना पाप है, भले यह अनजाने में क्यों न हुआ हो। बालमन को ये बातें बड़ी रोमांचकारी लगती थी। मगर जैसे-जैसे बड़ी होती गई, खुद में देवी का भाव गुम होने लगा और आसपास की नजरें, व्यवहार, नसीहतें यह अहसास कराने लगे कि मैं स्त्री मात्र हूं, जिसकी शालीनता और चरित्र सिर्फ इस बात पर निर्णायक है कि आंचल की ओर कोई मैली नजर से देख भी न पाए। बचपन के उस अहसास के मुकाबले व्यक्तित्व की परिभाषा ही बदल गई। गलती से भी पांव छू भर जाने के बदले क्षमा मांग लेने वाले समाज में स्त्री के प्रति इसके विपरीत रुख से रूबरू होना पड़ा। यहां तक कि अखबार के पन्ने भी डराने लगते थे। बलात्कार, छेड़छाड़, पीछा करने, यौन हिंसा आदि की घटनाओं से अखबार भरे होते थे।

यह सब आज भी है और शायद कल भी रहेगा। परिस्थितियां बहुत नहीं बदली हैं। हां, थोड़ा सुकून इस बात का जरूर है कि लड़कियां अब तुलनात्मक रूप से ज्यादा मुखर हुई हैं। पहले समाज के साथ खड़े होकर कई बार माता-पिता भी अपनी बच्चियों को ही कठघरे में खड़ा कर देते थे, उनकी ही गलती ठहरा देते थे, लेकिन अब माता-पिता का भी साथ बेटियों को मिलने लगा है।

इसके बावजूद अभी भी सामाजिक सोच का ताना-बाना कुंद ही नजर आता है। कुछ समय पहले फिल्मी दुनिया की एक चर्चित युवती की चौदहवीं मंजिल से गिर कर मौत होने की खबर आई। इसे लेकर कई आशंकाएं और कोण सामने आए। मगर मेरी सूई मृतक के पिताजी के सिर्फ एक बयान पर अटक गई। टीवी पर वही खबर बार-बार चल रही थी कि ‘उसका बलात्कार हुआ है- यह कह कर मेरी बेटी को बदनाम मत करो!’

इस बयान पर मैं हतप्रभ थी। बहुत पीड़ा का अनुभव करने लगी। मेरे लिए यह विषय था ही नहीं कि बलात्कार हुआ या नहीं! जांच कौन कर रहा… सही कर रहा या नहीं! मैं प्रशासन और न्याय प्रक्रिया पर कोई सवाल उठाने की अधिकारी नहीं। लेकिन मैं इस सामाजिक सोच पर चर्चा करने की अधिकारी जरूर हूं कि जहां बलात्कार शब्द आते ही पीड़िता की ‘इज्जत’ चले जाने की बात क्यों की जाती है। बलात्कार महिला के खिलाफ अपराध है और इसकी आशंका मात्र से उल्टे पीड़िता ही कैसे बदनाम हो सकता है? शायद ऐसी सोच और समझ भी बलात्कारियों का पोषण करती है। यही समाज बलात्कारियों का विवाह तक रचाता है, मगर पीड़िता पर पारंपरिक शुचिता का हवाला देकर ‘कलंक’ का टीका थोप देता है! जिसके खिलाफ अपराध हुआ, अत्याचार हुआ, जो पीड़ित है, ‘कलंक’ भी उसी के हिस्से! यह किस तरह एक सभ्य समाज होने की परिभाषा है?

क्या यह सच नहीं कि ऐसी ही सोच बलात्कारियों का हौसला बढ़ाते हैं, क्योंकि लड़कियों का स्वाभिमान, उनकी खुशी, जिंदगी हर बार छीन ली जाती है और सामाजिक नजरिया भी पीड़िता के ही खिलाफ जाता है। इस नजर में बदलाव कैसे आएगा, जब बलात्कार की आशंका भर से एक पिता को लगता है उसकी बेटी बदनाम हो गई! जिसके खिलाफ अपराध हुआ, उसी को बदनाम मान लेने की दृष्टि कहां से आती है? सवाल है कि क्या स्त्री की पहचान और अधिकार क्या अब भी ‘भोग की वस्तु’ की दृष्टि से ऊपर तक नहीं आ पाई है?

दरअसल, समाज का यह पितृसत्तात्मक नजरिया आज का नहीं है। इसकी परतों में छिपा समाज आमतौर पर स्त्री को देह मात्र के रूप में ही देखने का आदी है। सबसे अफसोसजनक बात यह निकल कर आती है कि स्त्री के कंधे पर ही परिवार और समाज की इज्जत का बोझ डाल दिया गया है। किसी परिवार की बदनामी तब नहीं होती, जब बेटा व्यभिचारी या दुराचारी या बलात्कार का अपराध करने वाला बन जाता है। मगर बीच राह अगर हवा भी बेटी की चुनरी उड़ा दे, तो यह परिवार के लिए सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन मान लिया जाता है।

आज भी हमारी सोच इसी के इर्द-गिर्द कैद है कि बलात्कार या किसी प्रकार की यौन हिंसा या पीछा किए जाने की शिकार लड़कियां ही येन-केन-प्रकारेण दोषी हैं! ऐसी सोच यह कहती है कि लड़कियां अपने पहनावे, हाव-भाव, खुलेपन, खुले विचारों आदि से पहले लड़कों को आकर्षित करती हैं, फिर कुछ गलत होने पर जिम्मेदार लड़कों को ठहराती हैं।

जब तक हम ऐसी सोच और मानसिकता नहीं बदलेंगे यह समाज भी नहीं बदलेगा। बलात्कारी का विवाह तक रचा दिया जाता है, जिसके साक्षी बनते हैं परिवार और समाज! पर अपने खिलाफ अपराध होने के बावजूद पीड़िता का जीवन, सपनें, उम्मीद सब खत्म हो जाती है। समाज-परिवार के सवालिया नजर और तानों का लक्ष्य पीड़िता नहीं, बल्कि अपराधी होना चाहिए।

सवाल है कि स्त्रियों के खिलाफ एक सोच की सामाजिक सैद्धांतिकी तैयार करने वाले और उसको सामाजिक मानसिकता के रूप में स्थापित करने वाले कौन थे! आज भी उसी पिछड़ी सोच में कैद होकर हम किस इंसानियत को बचा रहे हैं? क्या यह हमारे सभ्य होने पर प्रश्न-चिह्न नहीं है?