सुबह के लगभग ग्यारह बजे थे। परेशान-सी घर में बैठी थी कि अचानक सीढ़ियों पर आवाज आई- ‘कूड़े वाला…!’ सुनते ही राहत महसूस हुई। पिछले दो दिनों से गली में सब्जी वाला, फल वाला, दूध वाला और यहां तक कि गोलगप्पे वाला भी आ रहा था, लेकिन जो खुशी इसके आने से हुई, वह कुछ अलग थी। इसका कारण था कि पिछले दो दिनों से कूड़ा ले जाने वाला कोई व्यक्ति नहीं आया था। घर भर का कूड़ा कूड़ेदानों में नहीं समा पाने के कारण नीचे फर्श पर भी ढेर लगा था। खैर, कूड़ा जमा करने वाला आया तो अपने तेज कदमों से सोसायटी के जीने पर उतरता-चढ़ता आवाज लगा रहा था। महज दो दिन उसकी अनुपस्थिति ने जिंदगी को जैसे असहनीय बना दिया था। मगर अब घर का कूड़ा निकलते ही मैंने चैन की सांस ली।
लेकिन अब मेरी परेशानी का अगला दौर शुरू हो गया। उस करीब सोलह साल के लड़के को कूड़े का बड़ा डिब्बा ढोकर ले जाते देख कर मैं देर तक सोचती रही कि हम शहरी लोगों का जीवन किस कदर इन लोगों पर निर्भर हो चुका है। मगर सामाजिक ढांचे की तरह हमारी सोच के ढांचे में भी इनका स्थान सबसे निचले स्तर पर आता है। आखिर क्यों? मुझे याद है कि बचपन में पूजा करते समय मां बार-बार टोका करती थीं कि भगवान के सामने फूल उलटे हाथ से नहीं, सीधे हाथ से चढ़ाओ। यहां उलटा यानी बांया और सीधा यानी दाहिना। पूछने पर पता चला कि उलटे हाथ से फूल चढ़ाने से दोष लगता है और पूजा का पुण्य भी प्राप्त नहीं होता। आज इस बात को याद करके हंसी आती है और कई बार इस तरह की जड़ सोच पर अफसोस भी होता है। अगर हम सकारात्मक सोच से खुद अपने शरीर के अंगों के साथ न्याय नहीं कर सकते तो समाज के तथाकथित छोटे माने जाने वाले तबकों के प्रति मानवीय सोच कहां से लाएंगे? समाज में सदियों से कायम वर्ण-व्यवस्था ने तो पीढ़ियों से बहुत सारे लोगों को समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर बिठा कर गंदगी साफ करने का कर्तव्य ही निश्चित कर दिया था, लेकिन आज के विकसित दौर की पढ़े-लिखे बौद्धिक लोगों की जमात भी इनके मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाई है।
कुछ समय पहले रेडियो के एक विज्ञापन के जरिए पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अध्यक्ष ने लोगों से अपने घरों का सूखा और गीला कूड़ा अलग-अलग रखने का अनुरोध किया था। लेकिन इस बाबत कोई सख्त आदेश जारी नहीं किया गया। इसलिए लोगों के जागरूकता के स्तर में भी कोई बदलाव नहीं आया। हमारे शिक्षित समाज ने अपने सुविधा जगत से बाहर झांक कर देखा होता तब समझ में आता कि कूड़ेदानों के ढेर को नंगे हाथों से बीनते कूड़ा-मजदूरों की जिंदगी किसी नरक से कम नहीं है। घरों से इकट्ठा किए गए कूड़े से सूखी पॉलीथिन, प्लास्टिक, लोहा आदि बीनते मजदूरों को संक्रमण से होने वाली कई बीमारियां और त्वचा रोग हो जाते हैं जो इनके लिए अक्सर जानलेवा साबित होते हैं। लेकिन इनकी पीड़ा पर गौर करने की जरूरत समाज के उन संभ्रांत तबकों को नहीं है, जो अपनी किसी मामूली तकलीफ पर जवाब सरकार से मांगते हैं!
पिछले कुछ सालों के दौरान सीवर की सफाई करते हुए कितने ही मजदूरों की मौत विषैली गैस के कारण दम घुटने से हो गई। इनके ठेकेदारों ने सफाई उपकरणों का खर्चा बचा कर मजदूरों को तमाम जोखिम के बीच ही सीवर में उतार दिया और उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर उनकी जिंदगी को भी दांव पर लगा दिया। सवाल है कि घरों, सड़कों या शहरों की गंदगी साफ करने वाले सफाई मजदूरों के प्रति समाज की संवेदनशीलता का स्तर इतना नीचा क्यों है? हर मौके पर खुद के ज्यादा सभ्य और आधुनिक होने का दावा करने वाले समाज ने न इन लाचार तबकों की पीड़ा को समझा और न उनके प्रति कभी कृतज्ञता जाहिर करने की जरूरत समझी। यह बेवजह नहीं है कि तमाम कानूनी कवायदों और घोषणाओं के बावजूद हाथ से मैला उठाने तक की अमानवीय प्रथा का उन्मूलन आज भी देश से नहीं किया जा सका है।
पिछले दिनों एक खबर पढ़ी थी कि केरल में सीवर की सफाई का काम अब रोबोट यानी मशीनें करेंगी। पढ़ कर तसल्ली हुई। लेकिन एक सवाल भी उठा कि ऐसी स्थिति में सीवर मजदूरों के रोजगार का क्या होगा! बेरोजगारी इनकी जीवन स्थितियों को क्या और भी भयावह नहीं बना देगी? गांधीजी ने कहा था कि हमारे प्रत्येक कार्य का महत्त्व इस बात से निर्धारित होता है कि उसका लाभ समाज के सबसे कमजोर आदमी को मिल रहा है या नहीं। आज सरकार को इनके रोजगार के अवसर और कार्य-स्थितियों में सुधार पर ध्यान देना चाहिए। लोग इन्हें उपेक्षा और हिकारत की दृष्टि से देखते रहे हैं, जबकि हम सबको इनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। जब इन निम्न वर्गीय कर्मियों को मानवोचित सम्मान मिलेगा, तभी देश सच्चे अर्थों में विकसित कहलाएगा।
