दिल्ली में प्रदूषण का स्तर जहां तक चला गया है, उसमें बहुत सारे लोग यह साफ महसूस कर सकते हैं कि इसका उनकी सेहत पर क्या असर पड़ रहा है। यह चिकित्सीय अध्ययनों में भी सामने आ रहा है। इसके अलावा चेन्नई की बाढ़ ने भी यह संकेत दिया है कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ किस तरह के नतीजे दे सकता है और कैसे संकट खड़े हो सकते हैं। इसी से जुड़े व्यापक संदर्भों पर पेरिस में जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के संकट पर गहरी चिंता प्रकट की गई है। लेकिन क्या तापमान बढ़ने की यह समस्या और जलवायु में हो रहे इन परिवर्तनों का मूल कारण प्राकृतिक ही है, या कहीं और इसके बीज छिपे हैं?
आज हम देख रहे हैं कि पांच रुपए के लिए उठे विवाद में किसी को चाकू घोंप देने जैसी खबरें आ रही हैं। वाहन पार्किंग जैसे मामूली मसले को लेकर हत्याएं तक हो रही हैं।
ऐसा लगता है कि हमारी सहनशीलता की बुनियाद बेहद कमजोर हो चुकी है। राजनीति में तू-तू, मैं-मैं के अलावा कुछ बचा नहीं दिखता है। फिल्में लगातार हिंसा का छौंक लगा रही हैं। सामान्य बातचीत में, ककहरे में ब से बस की जगह ब से बम आ गया है तो इसे कैसे देखा जाएगा! विलासिता की चाह में अंधाधुंध भौतिक संसाधनों का दुरुपयोग अभिजात वर्ग की जीवन शैली का अंग बन चुका है। दिखावे की दौड़ ने मनुष्य को वस्तुओं का गुलाम बना दिया है। नई टेक्नोल़ॉजी की लालसा भी इसका एक कारण है। हम टेक्नोलॉजी का उपयोग नहीं कर रहे, उसके अधीन हुए जा रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या के दबाव ने कंक्रीट के जंगलों का विस्तार ही किया है।
फोर लेन के फेर में बड़ी तादाद में पेड़ काटे जा रहे हैं, दूसरी ओर वनों का क्षेत्रफल लगातार सिकुड़ रहा है। मसलन, कोटा-बारां और कोटा-उदयपुर राष्ट्रीय मार्ग के निर्माण के चलते कई किलोमीटर तक का वनक्षेत्र उजड़ गया। नतीजतन, कोटा और उसके आसपास के तापमान का हाल यह है कि दिसंबर में भी लोग केवल शर्ट पहने घूम रहे हैं और आइसक्रीम खा रहे हैं। आज माता-पिता भी अपने बच्चों को यही शिक्षा देते नजर आते हैं कि मार खाकर मत आना बेटा, मार के ही आना दूसरे को। अब सद्भाव के दिन लद गए, ईर्ष्या और दुर्भावना के झंझावातों का ही शोर है।
शोर जीवन का अंग ही बन गया है। धार्मिक कर्मकांड में भी प्रदर्शन का बोलबाला है। शोक की घड़ी में भी आसपास की बैठकों में भजन गाए जा रहे हैं। शास्त्रीय संगीत हाशिये पर है और पॉप, रैप के बाद हैवी मेटल के शोर-शराबे से युक्त संगीत ने युवाओं के दिलों में जगह बना ली है। संयुक्त परिवार तो खैर संग्रहालय की वस्तु बन गए हैं, लेकिन एकल परिवारों में भी अहं का टकराव प्रमुख हो गया है। सहयोग और साहचर्य परिवारों में समाप्त हुआ है। राजनीति में वैचारिक विभिन्नता होना सामान्य-सी बात है, लेकिन उसे जातीय दुश्मनी के रूप में लेना हमारे लोकतंत्र की अपरिपक्वता की ओर ही इशारा करता है।
आज विकसित देश वही आचरण कर रहे हैं जो एक समर्थ व्यक्ति करता है। सर्वाधिक संसाधनों का दोहन करके गरीबों को कठघरे में खड़ा करने की मानसिकता उनके स्वार्थी चेहरे को बेनकाब कर रही है। जाहिर है, न केवल पर्यावरण को सुधारने की जरूरत है, बल्कि सांस्कृतिक आबोहवा को भी बचाने की जरूरत है, क्योंकि मनुष्य का मस्तिष्क ही सबका कर्ता-धर्ता है। किताबों की जगहें पेन ड्राइव और टैब ले रहे हैं। शील, त्याग, सहयोग जैसे मूल्य नई पीढ़ी में से गायब होते जा रहे हैं। नैतिक शिक्षा की किताबों पर तथाकथित बुद्धिजीवी नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, लेकिन यह इस समय की सख्त जरूरत है। एक ओर, लुगदी साहित्य के लेखक आदर्श माने जा रहे हैं तो दूसरी ओर साहित्यकारों को पैसे लेकर बिकने वाला करार दिया जा रहा है। शासन की साहित्य और संस्कृति के प्रति जो सोच है, वह हैरान करती है।
दरअसल, समाज की परंपराएं ही तय करती हैं कि उसमें एक मनुष्य के लिए क्या जगह है। हजारों सालों के विकास के क्रम में मनुष्य ने सभ्य जीवनशैली का आधार बनाया है। इसे निरंतर आगे बढ़ाना हम सबकी जिम्मेदारी है। इसके लिए ऐसी परंपराएं और व्यवस्थाएं बनानी होंगी जो एक व्यक्ति को गरिमा और सम्मान के साथ रहने का माहौल देती हैं। यह तभी संभव है जब शुरू से ही बच्चों को एक स्वस्थ नैतिक आधार दिया जाए कि वे एक सभ्य मनुष्य के रूप में दूसरे के व्यक्तित्व का खयाल रखें। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम सब सामने वाले व्यक्ति से अपने लिए अच्छे व्यवहार की ही अपेक्षा करेंगे। यानी एक सभ्य और विकासमान समाज हम सबकी जरूरत है।

