एक गाना है- ‘ये मौसम भी गया वो मौसम भी गया, अब तो कहो मेरे सनम फिर कब मिलोगे, मिलेंगे जब हां हां बारिश होगी।’ बॉलीवुड के इस गाने की तरह कुछ मौसम तो चले गए, लेकिन अब यह मिलन दूर नहीं है। बारिश तो शायद नहीं होगी, लेकिन इस ठंड में अब भाजपा और आम आदमी पार्टी का मिलन होने वाला है। यह मत सोचिए कि ये दोनों पार्टियां मिल कर चुनाव लड़ेंगी, बल्कि चुनाव मैदान में एक दूसरे से भिड़ेंगी। तैयारी दोनों ओर से लगभग पूरी है। लेकिन रामलीला मैदान में मोदीजी के रैली के साथ भाजपा ने अपना चुनाव अभियान शुरू कर दिया है।

किरण बेदी, शाजिया इल्मी जैसे चेहरों शामिल करके भाजपा ने अपनी रणनीति साफ कर दी है। कांग्रेस का सवाल तब आएगा, जब चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर वह तय करेगी कि किसके साथ मिल कर सरकार बनानी है। जब दस फरवरी को नतीजे आ जाएंगे तब देखना होगा कि नरेंद्र मोदी अरविंद केजरीवाल को बधाई देंगे या केजरीवाल मोदी को। फिर सरकार बनने के बाद अप्रैल में लोग आकलन करना शुरू कर देंगे और जून में आलोचना! फिलहाल अरविंद केजरीवाल के उनचास दिनों की सरकार लोगों को याद आ रही है या मोदीजी की सात महीने की। मेरा मानना है कि यह लड़ाई भाजपा या ‘आप’ के बीच नहीं, बल्कि मोदी और केजरीवाल के बीच है। एक ऐसी लड़ाई जो बहुत कम दिखाई देती है। मसलन, इससे पहले वाराणसी में दिखी थी, जहां पूरा मीडिया गंगा नदी के किनारे बांसुरी बजाता हुआ नजर आया था, कभी केजरीवाल के लिए तो कभी मोदी के लिए।

इस मैदान में मोदीजी ने एक और ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है, किरण बेदी को भाजपा में शामिल करके। हर्षवर्धन के केंद्रीय मंत्री बन जाने के बाद भाजपा में जो संकट दिख रहा था, वह शायद किरण बेदी के आने से दूर हो गया है। बेदी भाजपा के लिए उम्मीद की किरण बन पाएंगी या नहीं, यह तो चुनाव के बाद पता चलेगा, लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी पार्टी के अंदर के मौके का इंतजार करते ‘काले बादलों’ से किनारा करना और पार्टी को एक नई दिशा में ले जाना। जब लोकसभा चुनाव के बाद किरण बेदी के भाजपा में आने की बात चल रही थी, तब पार्टी के अंदर आवाज उठी थी और स्थानीय नेता इससे खुश नहीं थे। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने ऐसे समय किरण बेदी के नाम की घोषणा की, जब चुनाव की घोषणा हो चुकी है। भाजपा के स्थानीय नेताओं के पास अब इतना समय भी नहीं कि वे फिलहाल किरण बेदी के खिलाफ आवाज उठा सकें।

हालांकि ऐसा साफ लग रहा है कि किरण बेदी के आने से भाजपा को कोई ज्यादा फायदा नहीं होने वाला है। उनके पास अब ज्यादा समय भी नहीं है कि वे लोगों के पास पहुंचे और उनका दिल जीत सकें। लेकिन अब तक आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में भाजपा के चेहरे को लेकर जो सवाल उठाए थे, किरण बेदी शायद उसका जवाब देने में सक्षम हों। दिलचस्प यही है कि कभी अरविंद केजरीवाल के साथ रही किरण बेदी अब उनके खिलाफ नजर आएंगी। अण्णा हजारे के नेतृत्व में केजरीवाल और किरण बेदी ने एक साथ जनलोकपाल के लिए आंदोलन किया था। मगर जब केजरीवाल ने अपनी पार्टी बना ली, तब किरण बेदी राजनीतिक पार्टी बनाने के मसले पर उनसे अलग हो गर्इं। लेकिन आज वे कह रही हैं कि मोदीजी की राजनीति की शैली ने उन्हें प्रभावित किया है। कभी मोदी की सख्त आलोचना करने वाली किरण बेदी आज भाजपा के लिए उम्मीद की किरण बन गई हैं।

किरण बेदी को केंद्र में भाजपा की सरकार और नरेंद्र मोदी के प्रति मध्यम वर्ग के भरोसे का फायदा मिल सकता है। मगर ऐसा लग रहा है कि निम्न मध्यम वर्ग और अल्पसंख्यक समुदायों के वोट केजरीवाल के साथ हैं। पिछली बार सरकार को उनचास दिनों के बाद मझधार में छोड़ देने के लिए माफी मांगने के बाद अब उस गलती के प्रति गुस्से की छाया जनता पर नहीं दिख रही है। इसके बावजूद यह देखना बाकी है कि दिल्ली की जनता केजरीवाल की बात सुनती है या फिर मोदी के ‘मन की बात’! यों दिल्ली का यह चुनाव काफी दिलचस्प होने वाला है। इसमें जो एक बात सबसे खास मुझे दिखाई दे रही है, उस लिहाज से कहूं तो यह कि काश, हर राज्य में ऐसा ही चुनाव हो जहां जाति और धर्म नहीं, बल्कि विकास के मुद्दे चुनावी राजनीति पर हावी हों। बिजली, पानी, सड़क जैसे मुद्दे चुनाव में राजनेताओं के लिए चुनौती बन जाएं।

 

सुशील कुमार महापात्रा

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta