संदीप पांडे ‘शिष्य’

यही बात देखने या फिर आसपास के वातावरण को महसूस करने के मामले में भी लागू होती है। सुबह जब गौरैया, बया, बुलबुल सब एक साथ ही झुंड मे उड़ती नजर आती है तब उस व्यक्ति की स्मृतियों में जरूर खास आएगी, जिसने कुदरत के चित्र उकेरती दुनिया की मशहूर कविताएं पढ़ी होंगी।

याद आ सकता है कि कभी ऐसा सचमुच होता था कि हजारों पंछी झील के किनारे, उद्यान में या फिर किसी बड़े-से दरख्त पर सुबह और शाम को पक्षियों का दिखाई दे जाना आम बात थी। हाल में कहीं पढ़ा कि अब लोगों को कौवे दिखने बेहद कम हो गए हैं। बीस साल पहले तक बस भात बिखेरने की देर होती थी और एक, दो, तीन करके दो-तीन दर्जन कौवे पता नहीं कहां से आ जाते थे। धीरे-धीरे दिनचर्या में मशीनी जीवन की दस्तक ने लोगों के जीवन में ऐसी हलचल मचाई है कि कौवे के अलावा भी कई अन्य पंछी को देखने की रुचि और उत्सुकता कम या न के बराबर ही रह गई है।

पहले नियमित रूप से मुट्ठी भर अनाज पक्षियों के के लिए बिखेरा जाता था। उस वक्त जो थोड़ा बहुत संपर्क पंछी और इंसान का बनता था, वह ऐसी छोटी-सी सक्रियता और परवाह के जरिए ही बन पाता था। बस अपना खाना, अपना नाश्ता, अपना-अपना सोचने वाले तब बहुत कम लोग थे, इसलिए पंछी को दाना और घर के भीतर रोशनदान तक उनका आशियाना घर में भी उनकी चीं-चीं की सुरलहरी का पारंपरिक रूप और आदमी से मिल कर रहने का ढांचा अपना मूल स्वरूप नहीं छोड़ पाया था।

कुछ दशक पहले तक गांव-देहातों की बस्ती में जीवन के रहन-सहन में थोड़ी बहुत तब्दीली नामालूम-सी थी। फिर आया ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं का चलन, जिसने पंछी की उड़ान को सीमित किया और उन डिब्बेनुमा मकानों में रहने वालों की सोच को संकुचित कर दिया। खेतों में फसलों की कटाई आदि के बाद जो अनाज बचा रह जाता था, वह पंछियों के चुगने के काम आता था। वे खेत अब बाजार, कालोनी और शापिंग माल बन गए हैं।

पंछी अब नगर से दूर होते चले गए हैं, फिर भी किसी वार-त्योहार पर कोई लोक धुन सुन कर वे आ जाते और हवा के प्रदूषण तथा मोबाइल टावर से अपनी नन्हीं-सी जान बचा कर वापस चले जाने लगे। फिर किसी कचरा पात्र में पड़ा रूखा-सूखा खाकर छुट्टियों के दौरान गांवों में बन-ठन कर जाने लगे। ये पंछी केवल उड़ते या नीड़ ही नहीं बनाते। पंछी के बहुत व्यापक सांस्कृतिक परिदृश्य को मशीनीकरण के घातक से परदे ने एकाएक ढक दिया है। पंछी पीपल, नीम, बरगद, इमली आदि के बीज यहां से वहां ले जाते हैं। पीपल और बरगद तो कभी यों ही उगता नहीं।

पंछी के मल में लिपटा बीज ही पीपल और बरगद के पौधे के रूप में अंकुरित होता है। मगर क्या कहा जाए कि भारत के सात सौ से अधिक नगरों ने सभ्य और स्मार्ट सिटी बनने की धुन में अपने घने दरख्तों पर कुल्हाड़ी चला दी, जिन पर सैकड़ों कबूतर, गौरैया, तोते, बुलबुल का आशियाना हुआ करता था। इस पर अनेक स्वैच्छिक संगठनों ने आपत्ति भी जताई कि पेड़ काटने से पहले इन पंछियों के वास्ते कुछ साल मेहनत करके एक पूरा हरा-भरा उद्यान बसा दिया जाए, उसके बाद इन वृक्षों पर वार किया जाए। मगर सब खानापूर्ति। कहने को तो बदले में पौधारोपण किया गया, पर दो फीसद पेड़ तक नहीं बचे।

मानव मन करुणा, ममता, दया, प्रेम से सराबोर होता है। खुद से तो हम जीवन भर प्रेम करते ही हैं। इन परिंदों को भी थोड़ा प्यार दे देंगे तो हमारा व्याकुल मन भी आराम पाएगा। देने का भाव और प्राणी मात्र से लगाव- यह तो इंसान का कुसुमित संस्कार रहा है। कहीं ऐसा न हो कि कल हमारे बच्चे विदेश से चार लाख का मकाऊ तोता लाकर घर पर पिंजरे में सजा दे। उसका विदेशी दाना-पानी देकर पोषण करे, मगर अपने कक्ष की खिड़की के बाहर पर फड़फड़ाती चीं-चीं करती गौरैया की भूख-प्यास के प्रति कठोर हो जाए। पुराने समय में प्रतिदिन पंछी दर्शन अच्छा और शुभ माना जाता था। अगर अब भी यह संवेदना जी उठे तो कुछ लोग तो जागरूक होंगे ही और वे दो मुट्ठी अनाज और कुछ बूंद जल इनके लिए रखेंगे।

यों भी पंछी की वैसी कोई दिखावे की जरूरत नहीं है, जो आमतौर पर किसी पालतू के साथ करना होता है। पंछी तो बस दो-चार दाने चुगता है, दो घूंट पानी पीता है और धन्यवाद करता दूर गगन में उड़ान भरते हुए यह कहता जाता है कि सचमुच आदमी पंछी से कभी बैर नहीं रख सकते, धरती पर अभी इंसानियत बची है।