सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

बातचीत के माध्यम से हम दूसरों के विचारों और उसकी भावनाओं को समझ सकते हैं और अपने विचारों को समझाते हैं। इस तरह हम अपने रिश्तों को मजबूत बनाते हैं और अपने जीवन में खुशहाली लाते हैं। अक्सर कहा सुना जाता है जो जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है।

जैसा बोओगे, वैसा काटोगे। कर्म से आशय किए जाने वाले कामों से लिया जाता है। हम बिल्कुल भूल जाते हैं कि बोलना भी कर्म ही है। दूसरो से वैसा ही बोलो, वैसा ही व्यवहार करो, जैसा आप अपने प्रति चाहते हैं। पर यह सब कहने मात्र के लिए होकर रह जाता है, पालन नहीं किया जाता। जानते तो हम सभी हैं कि शब्द संभाल के बोलिए, शब्द के हाथ न पांव, एक शब्द घायल करे एक शब्द बने घाव।

पर बोलते समय सारी कड़वाहट, सारा जहर, सारा आक्रोश, सारी घृणा शब्दों में घोल जुबां पर ले आते हैं। ‘जहर बुझे तीर’ जैसे शब्द सामने वाले को तोड़ कर रख देते हैं। इसलिए कुछ सीखें या मत सीखें, पर सबसे पहले भाषा की गरिमा बनाए रखना और असंसदीय भाषा के प्रयोग से यथासंभव बचे रहना बहुत जरूरी है।

जानते तो सब हैं कि ‘जिह्वा ऐसी बाबरी कह गई सुरग पताल, आप तो भीतर गई जूती खाए कपाल’ या ‘ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय, औरन को शीतल करे आपहू शीतल होय’ या ‘बच्चे जब अपना मुंह खोलो, तुम मीठी वाणी ही बोलो, इससे तुम सुख पाओगे, सबके प्यारे बन जाओगे’, पर इसे व्यवहार में कब ला पाते हैं।

जिनके प्रति मन में आक्रोश होता है, सम्मान नहीं हुआ करता, उनके लिए आदर-इज्जत के शब्द बड़ी मुश्किल से निकला करते हैं। मजबूरी में अगर नमस्ते करनी ही पड़ जाए तो यह भी लठमार लहजे में की जाती है। जिनके प्रति सम्मान-आदर का भाव नहीं होता, उन्हें तो छोड़िए, उनके दूर-दूर के संबंधियों के लिए भी गर्हित शब्दावली प्रयोग की जाती है।

कभी-कभी तो लगता है सारा का सारा खेल भावनाओं का है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का ढोल भले से पीटा जाता रहे, पर सच यह है कि घर-परिवार की सीमाएं भी बहुत संकुचित हैं। जहां स्वार्थ और मैं पन हावी होता है, वहां दीवारें ऊंची होती ही हैं, शब्दों के तीखे बाण छूटते रहते हैं। भाषा की मर्यादा का उल्लंघन होता है।

जीवन में बात करने के लिए कुछ सूत्र हैं। मसलन, सच और अच्छा बोला, सुना और समझा जाए। अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाए। हम अपनी भावनाओं को संभालें, भाषा को साफ करें और आवाज को स्थिर रखें। सबसे पहले दिलों के बीच जो ऊंची-सी दीवार खड़ी हो गर्इं है, उसे गिराना जरूरी है। मन में जो मैल जम गया है, उसे दूर करना जरूरी है।

आपसी समझ और पारस्परिक सौहार्द, एक दूसरे के मन को समझना, बात करना और आवश्यक हो तो मध्यस्थता जरूरी है। उल्टा-सीधा जो जमा है, उसे खुरचना जरूरी है, तब जाकर कहीं बात बनती है। अब या तो मारे गुस्से के मुंह में दही जमा के बैठे रहा जाए या उल्टा-सीधा जो मन में आए, बकते रहा जाए तो बात कैसे बनेगी! शब्दों के चयन में सावधानी बरतनी चाहिए तो बात किस लहजे में कही जा रही है, इसका भी नोटिस लिया जाना जरूरी है। पर इन सबसे अधिक जरूरी है कि मन साफ रहे।

एक दूसरे के प्रति इतनी कटुता न पाल के बैठ जाएं कि चौबीस घंटे सीना ही जलता रहे, दिमाग में भुनभुनाहट बनी रहे, शांत ही न बैठ पाएं। सार्वजनिक सभा या लोगों के बीच किसी से इशारे या कानाफूसी न करें, उसी भाषा का प्रयोग करें, जिसे सभी लोग समझ सकें। तीखी आवाज में बोलना, छींकना, खांसना, ठहाके लगा कर हंसना अशिष्टता है, इनसे बचें।

‘सुंदर बोल’ आदत से नहीं, अभ्यास से सीखे जाते हैं। सार्वजनिक स्थल पर मित्रों के साथ धीमी आवाज में बात करना चाहिए। गाली और अभद्र भाषा का प्रयोग तो कतई न किया जाए। अपना उच्चारण सुधारना जरूरी है। अपने बोलचाल को बदल लिया जाए और सामान्य रहा जाए। गलत शब्दों से बचे रहने से इनका असर दूसरे पर तो गहरा होता ही है, पर हम भी कहां शांत रह पाते हैं!

वाणी की कटुता को दूर कर शाब्दिक व्यवहार में सहज सरल बने रहा जाए तो भाषा में भी सरलता-सहजता आ जाएगी और हम भी निश्चिंत रह पाएंगे। इसलिए मुस्कराना चाहिए। एक अच्छी मुस्कान के बड़े फायदे हैं। एक तो हम खुद अच्छा महसूस करते हैं, दूसरा सामने वालों के लिए हमसे बात करना आसान हो जाता है। मतलब यह है कि एक अच्छी मुस्कान के सहारे लोगों के दिलों में उतरने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।