आए दिन विद्यालयी गतिविधियों में समय-समय पर बहुत सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें बच्चों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली कविताएं और गीत भी होते हैं। कई गीत या फिर कविताएं इस प्रकार की भी होती हैं- ‘मां मुझको बंदूक दिला दो, मैं भी लड़ने जाऊंगा, सरहद पर बन फौजी मैं, दुश्मन को मार भगाऊंगा… हम छोटे-छोटे बच्चे हैं, हम भी सीमा पर जाएंगे, सीने पर गोली खाएंगे।’ यह कविता या इस आशय के गीत बच्चे कई बार बिना अर्थ समझे ही गाते रहते हैं। इस छोटी आयु में जब बच्चों की आयु खिलौनों से खेलने की होती है, तब बच्चे अपने नन्हे हाथों में बंदूक मांग रहे होते हैं। ये बच्चे किससे लड़ने की बात कर रहे हैं?

वे दुश्मन को मार भगाने की बात कर रहे हैं। वे दुश्मन कौन हैं? इस आयु में तो कई बच्चे दुश्मन जैसे शब्दों के अर्थ तक ठीक से नहीं जानते हैं। लेकिन देखा जाए तो वे बच्चे अपने जीवन की प्रात: बेला में ही सीने पर गोली खाने की बात करते हैं, जिन्हें अभी सूर्य-सा चमकना है, जीवन के दिन के अनेक पड़ाव देखने हैं।

बच्चों की भावनाओं के अनुरूप कविताएं उन्हें सिखाएं

ऐसी कविताएं उन्हें बड़ों द्वारा याद करवाई जाती हैं। हम जो कविताएं या गीत बच्चों से प्रस्तुत करवा रहे होते हैं, उनका बच्चों के लिए कितना मायने हैं? वे किसी भी रचना को क्यों गाएं, जिनका अर्थ या परिणाम उन्हें पता न हो? अपने देश, संस्कृति का गौरवगान तो अच्छा है, लेकिन यह दुश्मन कौन है? यह मारने, मरने की बात क्यों की जाए? जीने और जीने देने की बात क्यों नहीं की जाए? दूसरे कि हम बड़े, बच्चों की भावनाओं के बारे में कितना जानते हैं? हमारे किसी भी कृत्य का बच्चे पर कितना असर पड़ेगा, हम उससे या तो पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं या हमें इस बात की परवाह नहीं होती कि बच्चों का इस पर क्या दुष्परिणाम पड़ने वाला है। बच्चे बिना समझे ऐसी चीजों को मात्र रट रहे हैं, जो कि हम उन्हें रटवा रहे हैं।

हम बड़े कई बार जाने-अनजाने में अपने कई दुश्मन भावनात्मक रूप से उन्हें सौंप रहे होते हैं कि जो हमारा दुश्मन है, वह तुम्हारा भी दुश्मन है। हम दुनिया के इतिहास को देख लें तो बहुत सारे दुश्मन तो हमारे दुश्मन थे ही नहीं। कुछ दुश्मन हमारे दूसरे देश के होने से बने, कुछ दूसरे धर्म के होने से बने, कुछ दूसरी जाति के होने से बने और कुछ दूसरे परिवार के होने से बने। इन बच्चों का काम बड़ों के दिए दुश्मनों को आगे अपने जीवन में ले जाना है और फिर आगे आने वाले बच्चों को सौंप देना है।

मूलरूप से अगर हम बच्चों की प्रवृत्तियों को समझें तो देख पाएंगे कि बच्चे बेहद दयालु, प्रेम करने वाले और सबको समान समझने वाले होते हैं। सियारामशरण गुप्त की कविता ‘मैं तो वही खिलौना लूंगा…’ यों ही नहीं लिखी गई है। इसलिए भी शायद कइयों ने कहा है, ‘बच्चे भगवान का रूप होते हैं’। बच्चे किसी को दूसरे धर्म या जाति का नीचा-ऊंचा नहीं समझते। वे किसी से अमीर-गरीब होने पर कोई भेदभाव नहीं करते।

वे अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों में जीते हैं, इसलिए बहुत पैसे वाले घर के बच्चे भी कई बार हमें झाड़ू, चप्पल से खेलते दिख जाते हैं और अभिभावक उन्हें महंगे खिलौने पकड़ाते रहते हैं। लेकिन वे उनको छोड़ के झाड़ू, चप्पल से खेलने लगते हैं। किसी खेल को खेलते हुए वे मिट्टी में खो जाते हैं। उनके माता-पिता चिंतित होते रहते हैं कि उनका बच्चा मिट्टी में लिपट गया है। वे बार-बार उसे मिट्टी में खेलने से रोकते रहते हैं। वे ऐसी हर चीज के लिए उन्हें रोकते रहते हैं जो उनकी निगाह में ठीक नहीं है।

हमें यह याद करना चाहिए कि अब तक हम मानवीयता, संवेदना और छल-कपट से दूर जीवन-तत्त्व से जुड़े प्रतीकों के संदर्भ में बच्चों का हवाला देते आए हैं और यह सच भी है। बच्चे फूल से होते हैं और उनकी मासूमियत जीवन-सा संदेश देती है। उन्हें हिंसा का दुश्चक्र में जाने से बचाया जाना चाहिए।

हम गाहे- बगाहे बच्चों की कोमलता, उनकी बाल सुलभ क्रियाओं की प्रशंसा तो करते हैं, लेकिन करते वह हैं जो उनकी कोमलता को नष्ट करती है, उन्हें क्रूर बनाती है, कठोर बनाती है, उनमें दुश्मन के प्रति बदले की भावना भरती है। उनमें ऊंच-नीच के दायरे बनाती है। मनुष्य का कोई भी सामाजिक स्वभाव एक दिन में नहीं बनता।

जब हर दिन उसके अंदर दुर्भावनाएं, भेदभाव के आग्रह पहुंच रहे होते हैं, तब वे धीरे-धीरे उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं और फिर देश, धर्म, जाति आदि से होते हुए यह घृणा हमारे आसपास भी फैलने लगती है। जब यह चिंता और बड़ी हो जाती है, तब हम समूचे काल और समाज को कोसने लगते हैं। यह भावना एक दिन का परिणाम नहीं, यह बूंद-बूंद जहर की हर दिन रिसती है आदमी के अंदर। इसलिए बच्चों के बचपने को बचाने से ही हम एक कोमल, सहृदय युवा और परिपक्व समाज बचा पाएंगे।