मौत के जिक्र से ही रीढ़ में दहशत रेंगती है। इसके बारे में किसी तरह की चर्चा को भी हमने रोजमर्रा की जिंदगी से दूर रखने की व्यवस्था कर रखी है। हाल ही में ‘डिस्कवरी’ पर एक कार्यक्रम आ रहा था पारसी समुदाय के बारे में। उनके यहां शव को ‘टावर आॅफ पीस’ पर रखने का रिवाज है। मान्यता है कि मृत देह को अकेले में छोड़ दिया जाना चाहिए जहां गिद्ध और कौवे उसे खा लें। यह कार्यक्रम इसी रिवाज के बारे में और गिद्धों के गायब होने पर पारसी समुदाय की चिंताओं से संबंधित था। तिब्बत में भी शव को परिंदों को खिला देने का रिवाज रहा है। लेकिन वहां शव के छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते हैं और फिर गिद्धों और कौवों को खिलाया जाता है।

सोचें तो यह एक बड़ी समस्या है। धर्म के साथ-साथ समाज के सामने भी। आमतौर पर शव या तो जलाया या दफन किया जाता है। हर मृत व्यक्ति के साथ या तो लकड़ियां जलती हैं या थोड़ी जमीन कुर्बान होती है। जमीन के अभाव से पहले से ही त्रस्त धरती के बाशिंदे खुद बेघर रह कर अपने हिस्से की जमीन मौत के हवाले करते हैं। यही रिवाज है, यही संस्कार, यही धर्म। पशुओं का अंतिम संस्कार भी एक बड़ा प्रश्न है, खासकर शहरों में।

इतिहासकार गोपाल कृष्ण गांधी ने महात्मा गांधी की शवयात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडंबना थी कि जीवन भर अहिंसा की पूजा करने वाले गांधीजी के शव को एक विध्वंसक शस्त्र ढोने वाले वाहन में रखा गया था! गांधीजी के सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि गांधीजी अपने शव को रसायन में लपेट कर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहां उनकी मृत्यु हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर यह उल्लेख मिलता है कि उनके दाह संस्कार में ‘पंद्रह मन चंदन की लकड़ियां, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ’। जो इंसान एक फकीर की तरह रहा और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके दाह-संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया!

इस मामले में दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे। हालांकि उनका कोई परिवार या कोई नाते-रिश्तेदार नहीं था। वे न हिंदू रिवाजों को मानते थे, न किसी और को। कृष्णमूर्ति ने विस्तार से बताया था कि उनके शव को स्नान करवाने के बाद एक साफ और सस्ते कपड़े में लपेटा जाए, फिर जितनी जल्दी हो सके, उसका दाह-संस्कार कर दिया जाए। शव को कम से कम लोग देखें, कोई कर्मकांड न हो और उसे बस लकड़ी का एक कुंदा भर समझा जाए। लोगों ने अस्थियों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करें, बस उसके ऊपर कोई स्मारक, मंदिर वगैरह बिल्कुल भी न बनाया जाए। सुकरात से उनके मित्रों ने पूछा था कि उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए तो सुकरात ने कहा- ‘पहले मुझे पकड़ कर सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा, वह मैं ही हूं; फिर जो चाहे कर लेना!’

हमारे देश में आमतौर पर शव के अंतिम क्रियाकर्म दो तरीके से किए जाते हैं। जलाने में लकड़ी का उपयोग कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगता है। उनका कहना है कि जितनी लकड़ियां किसी मृत देह को जलाने के काम आती हैं, उनसे किसी गरीब घर के लिए काफी र्इंधन निकल आएगा। बिजली से चलने वाले शवदाह-गृह में अभी भी परंपरागत हिंदू जाना नहीं चाहते। फिर प्रश्न उठता है अस्थियों और उनके विसर्जन के लिए किसी नदी का। पर्यावरण की फिक्र करने वालों के लिए नदियों का प्रदूषण एक बड़ा प्रश्न है। हिंदू रीतियों में साधु-संन्यासियों, छोटे बच्चों सहित कुछ और लोगों के मरने के बाद शव को जल समाधि दी जाती है। सही तकनीक न अपनाई जाए तो शव सतह पर आ जाता है।

जमीन के अभाव, तरह-तरह के प्रदूषण और शव की दुर्दशा को देखते हुए बेहतर होगा कि सही सोच वाले लोग जीते-जी अपने सगे-संबंधियों को निर्देश दे दें कि उनके शव के साथ क्या किया जाए। मौत के बाद चलने वाला कारोबार धरती, कीमती संसाधनों और परिजनों के धन और ऊर्जा का कम से कम नुकसान करे तो बेहतर होगा। समस्या यह है कि मृत्यु को एक ऐसा वर्जित विषय माना गया है कि हम इस बारे में बात ही नहीं करते। नतीजतन, इस मामले में सदियों से चली आ रही परंपराएं ही अपना काम करती हैं। नए सिरे से सोचने की संभावना बहुत कम रह जाती है। अन्यथा देहदान एक बड़ा विकल्प है। जीते-जी लोगों का जीना मुश्किल करने वाला इंसान मृत्यु के बाद भी कैसे परिजनों का, धरती, जल, वायु, अग्नि और आकाश के लिए भी त्रास का कारण बनता है, यह काबिले-गौर है। जिंदगी तो लड़खड़ा कर थम जाती है, पर मौत का कारोबार ऐसे नहीं थमता। बेतहाशा चलता है मौत का तमाशा। (चैतन्य नागर)