दिल्ली में मुझे अक्सर पलवल से गाजियाबाद लोकल शटल ट्रेन में सफर करना पड़ता है। ट्रेन के एक डिब्बे में भजन-कीर्तन मंडली पूरी श्रद्धा से गाती-बजाती है। ये लोग सामान्य यात्री होते हैं और रोजाना एक ही डिब्बे में सवार होते हैं। मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि शहरों-महानगरों की भागमभाग से भरी जिंदगी में हमारी पुरानी परंपराएं बची हुई दिखती हैं। पहले लोग गांवों में पेड़ के नीचे बैठ कर या किसी पूजा के आयोजन में लोकगीत या कीर्तन गाते थे। दोपहर का समय हो तो गीत सुनने वालों में आसपास के किसानों, आम लोगों के अलावा चरवाहे भी शामिल हो जाते थे। लेकिन यहां ट्रेन में भक्ति भाव देख कर भी यही लगा कि पता नहीं अगली पीढ़ी अपनी परंपराओं और संस्कृति के प्रति क्या रुख रखती है।

पिछले कुछ समय से जब भी मुझे गाजियाबाद के साहिबाबाद जाना होता है, तो मैं उसी लोकल ट्रेन से सफर करता हूं। लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि यह भजन-कीर्तन मंडली जितनी भक्ति में लीन दिखती है, उतनी है नहीं। डिब्बे में जिन सीटों पर बैठ कर ये लोग भजन-कीर्तन करते हैं, वहां खाली जगह होने पर भी अगर कोई दूसरा आकर बैठ जाए तो वे उसके साथ अभद्र व्यवहार या गाली-गलौज भी करने लगते हैं। दलील यह होती है कि उनका कोई साथी अगले किसी स्टेशन पर सवार होने वाला है। यह सही हो तो भी ऐसा व्यवहार ठीक नहीं है। मेरे मन में अक्सर सवाल उठता है कि जो व्यक्ति आस्था में सराबोर होता है, उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए!

इसी तरह की भक्ति में लीन एक व्यक्ति को मैंने मस्जिद में कोई धार्मिक किताब पढ़ते देखा। कुछ देर बाद वह मस्जिद के भीतर किसी काम से मीनार वाले कमरे में गया। इस बीच एक युवक वहां नमाज पढ़ने आया। वह उत्सुकतावश घूमते हुए पुराने स्थापत्य और वास्तु वाले मीनार को गौर से देखने लगा। युवक शायद इस बात से अनजान था कि यहां कोई रहता भी है। वह मीनार को देख कर रोमांचित हो रहा था। लेकिन तभी उस व्यक्ति ने बिना किसी बात के उसे डपटना शुरू कर दिया। सवाल है कि क्या धार्मिक किताबें केवल पढ़ने के लिए पढ़ी जाती हैं? उनमें दर्ज बातें हमारे स्वभाव और बर्ताव में क्यों नहीं उतरती हैं? यह भक्ति है या दिखावा!

अपने एक मित्र के साथ जब हम गाजियाबाद जाते, तो उसके किसी काम से गौशाला में जाने के क्रम में मैं भी जाता। एक दिन गौशाला में मौजूद व्यक्ति सहज भाव से बताने लगा कि भाई साहब, कहीं भी सरकारी जमीन खाली दिख जाती है, तो उस पर कुछ लोग गौशाला बना देते हैं। अब पता नहीं कि इसके पीछे गाय की सेवा का भाव कितना है और सरकारी जमीन पर कब्जा करने का मकसद कितना!

हमारे देश में धर्म और जाति के नाम पर जब राजनीति खड़ी हो रही है तो आम लोगों को ऐसा करते देख हैरानी क्यों हो! ऐसे अनेक शख्स हैं, जो इस तरह की राजनीति से अपनी रोटी सेंक रहे हैं। लेकिन इस राजनीति की चक्की में पिसते हुए जो लोग भक्ति का प्रदर्शन करते हैं, उसका हासिल क्या है! नशे में या बुरे बर्ताव के साथ हम किसी भी धर्म के तहत भजन-कीर्तन या पूजा-पाठ में भी लगे रहें तब फिर भक्ति का मतलब क्या! देश में सामाजिक सद्भाव का माहौल बिगाड़ने और विद्वेष फैलाने में जो लोग सबसे आगे दिखते हैं, क्या वे भी खुद को भक्त नहीं मानते? दिखावे की भक्ति करने वाले ऐसे लोगों को शायद ही कभी प्रेम और साहौर्द की बात करते देखा जाता है। इनकी बातचीत में क्षेत्रवाद, भाषाई दुराग्रह, जातिवाद या सांप्रदायिकता खुलेआम शामिल होती है।

बहरहाल, इन हालात के बरक्स मुझे दिल्ली की सरकारी बस में एक सज्जन मिले। गीत गाना उनका शौक है। वे बसों में बहुत अच्छे सुर और लय में गीत गाते हैं। दिन भर काम के बोझ और दबाव से थके-हारे कुछ लोग जब अपने घर की ओर लौट रहे होते हैं, तब किसी बस में सुरेंद्र आनंद के गीत उनके लिए सुकून बनते हैं। सुरेंद्रजी की बातों और व्यवहार में जिंदादिली है। वे जो गीत गाते हैं, उनमें क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषा या सांप्रदायिक दुराग्रह दूर तक नहीं होता। वे अपने सभी सहयात्रियों के साथ बेहद प्यार और खुशी से पेश आते हैं। अब मैं जब भी बस में सवार होता हूं तो मुझे ट्रेन की भजन-कीर्तन मंडली और मस्जिद के उस व्यक्ति की याद आ जाती है और जब लोकल ट्रेन में जाता हूं तो मुझे बस में दिखे सुरेंद्र आनंद और उनके गीत याद आते हैं।