प्रभात कुमार
दिलकश झील, खूबसूरत पड़ोस और कलात्मक मंदिर वहां जाने वाले किसको सम्मोहित नहीं करता होगा। कुछ समय पहले एक परंपरा के मुताबिक उस मंदिर प्रांगण में ‘देव सवारी’ के पधारने का मौका था। भक्तजन उनसे आशीर्वाद ले रहे थे और अपने सवालों के जवाब भी।
भारतीय राजनीति में सफल और सुफल हुए महानुभावों से आकर्षित होकर एक बच्चे ने राजनीति में जाने को इच्छुक अपने पिता से कहा- ‘देवता से पूछिए कि आप मंत्री बन सकते हैं या नहीं।’ परिवारजनों के भी प्रेरित करने पर उस व्यक्ति ने ‘देवता’ को भेंट अर्पित करने के साथ प्रश्न किया- ‘क्या मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूं’! ‘देवता’ ने आशीर्वाद से नवाजा और ‘देव प्रतिनिधि’ ने कहा कि आपका काम हो जाएगा।
शायद उस व्यक्ति के प्रश्न में देश की राजनीति में किसी की भी अप्रत्याशित जीत की कल्पना का समावेश रहा होगा। हालांकि आम लोगों का जीवन मेहनत, लगन, संयम, संतुष्टि और हिम्मत से भरपूर है फिर भी जिंदगी में राजनीतिक चमत्कार हो सकते हैं। एक बार चमत्कार होना शुरू हो जाए तो अनेक व्यक्ति, समूह और संस्थाएं भी सहयोग देने लगती हैं। हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि अधिकतर लोग अपने ईष्ट से स्वार्थ सफलता के लिए निवेदन करते रहते हैं। यह कितनी महीन सुविधा है कि ‘देवता’ आपके घर भी पधार सकते हैं! सरकार प्रसिद्ध मेलों में ‘देवताओं’ को बाकायदा निमंत्रण भेजती है, उन्हें नजराना दिया जाता है, नई सरकार उसमें वृद्धि करती है।
सभी देवी-देवता सामाजिक समानता का आशीर्वाद देने वाले माने जाते हैं, लेकिन इसी समाज में बुद्धि, ज्ञान और सहिष्णुता एक वस्तु की तरह वितरित करने के लिए खोले गए अनेक प्रांगणों में सामूहिक, पारंपरिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान ‘देवताओं’ द्वारा सभी इंसानों को समान समझने के सामाजिक सूत्र का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जाता। विशेषकर ग्रामीण अंचल में ऐसा होता रहता है। शक्तिशाली सरकारें माहौल खराब करने वालों का प्रशासनिक बहिष्कार नहीं कर पातीं और बाकी सब भी शांत ही रहते हैं। कच्ची उम्र के बच्चे के, जिनमें ‘भगवान’ देखे जाते हैं, दिमाग में छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच की भावना बचपन से स्थापित होती जाती है।
संभव है कि ‘देवता’ सहिष्णुता और समानता का संदेश देना चाहते होंगे, लेकिन उनके प्रतिनिधि इस संदर्भ में चुप रहते हैं। वे शायद मानते होंगे कि सभी इंसान एक जैसे नहीं हैं। आम व्यक्ति, खासतौर पर तथाकथित निम्न माना जाने वाला काम करने वाला व्यक्ति ईष्ट की मूर्ति के करीब भी नहीं जा पाता, पूजा कर पाना दूर की बात है। धन और शक्तिसंपन्न व्यक्ति अपने मनपसंद पूजा परिसर में पूजा-पाठ हवन यज्ञ आदि अपनी सुविधा के मुताबिक कर पाते हैं। अक्सर इस संबंध में खबरेंआती रहती हैं।
दूसरी ओर समानता के प्रवचन चलते रहते हैं। इस संदर्भ में असहाय प्रशासन को अनेक मामले कबड्डी को फुटबाल बनाकर खेलने पड़ते हैं। बेचारा समय अदालत की शरण में परेशान खड़ा रहता है। ऐसी घटनाएं बार बार होती रहती हैं और असमानता का पहाड़ ऊंचा होता रहता है। जातीय भेदभाव कभी खत्म नहीं हो पाते। क्या खास लोगों के ईष्ट उन्हें बेहतर प्रेरणा नहीं दे पाते? हमने तो जातीय समीकरणों के आधार पर ‘देवताओं’ को भी अलग-अलग श्रेणियों में बांट रखा है!
मानव जीवन में ‘देवताओं’ की भूमिका और जिंदगी और समाज के कठिन मोड़ पर ‘देवताओं’ के निर्माण और विकास के बारे में अनेक सवाल खड़े हैं। जब समाज में जनसाधारण को सुविधाएं नहीं थीं, तब लोगों के सुख-दुख में ‘देवताओं’ का बड़ा दखल था। वे अपनी तकलीफें ऐसे देवताओं के सामने बहुत विश्वास और आस्था के साथ रखते थे और आज भी यह आस्था बरकरार है। हालांकि बहुत से अंधविश्वासों और जातिगत असमानताओं ने ये दोनों कम किए हैं।
प्रबंधन कमेटियों पर खास लोगों कब्जा बरकरार रहता है जो उनका प्रभुत्व जमाए रखता है और वे इसको ढाल बनाकर निम्न वर्ग पर दबाव बनाए रखते हैं। देवस्थलों के निर्माण और विकास में इनकी सक्रिय भूमिका रहती है। ईष्ट से कौन डरता है? शक्तिशाली, धनवान, सुविधा प्राप्त तो कभी और बिल्कुल नहीं। आम लोगों की बात अलग है। यह तो कितनी बार साबित हुआ है कि महत्त्वपूर्ण लोगों को किसी का भी डर नहीं। आम लोगों को तो बुरे समय का संकट वैसे भी लिपटा रहता है।
सभी नागरिकों का, चाहे वे किसी भी गोत्र, जाति, संप्रदाय या क्षेत्र के हों, समझदारी, सद्भाव भरा सामूहिक प्रयास ही समाज में वैचारिक असमानता कम कर सकता है। आर्थिक समानता तो व्यक्ति की मेहनत ही उगा सकती है। मेहनत का रास्ता थोड़ा मुश्किल लग सकता है, मगर यह हर मुश्किल का हल भी तो है। इस तरह यह सच भी फिर स्थापित हो सकता है कि नीली छतरी वाला भी उनकी मदद करता है जो अपनी मदद आप करते हैं। ‘अपनी मदद आप’ का मतलब स्पष्ट रूप से मेहनत ही माना जाना चाहिए।