अशोक सण्ड
गुजर गया घटनाओं से घिरे साल का एक बड़ा हिस्सा। अब चौथेपन दौर। अजब संयोग है कि दशरथ पुत्र रामचंद्र और करमचंद के पुत्र गांधी इन दिनों बहुत याद आते हैं। विडंबना यह कि समय के पहिये ने दोनों को धूमिल कर दिया है। अलबत्ता राजनीतिक इस्तेमाल के लिए ही आमतौर पर उन्हें खंगाल लिया जाता है। बापू राम भक्त थे।
रामराज का सपना उन्होंने ही देखा था, लेकिन जहां राम ही राजनीति के एक मुद्दे हो गए हों, वहां रामराज की बात किस मुंह से की जाएगी। गांधी की बात इसलिए आवश्यक है कि भारत को आजादी उनके प्रयासों से मिली है। गिने-चुने सही, लेकिन अभी भी देश में कुछ गांधीवादी बचे हैं जो भरी आंखों से गांधीवाद की लानत-मलानत होते देख असहाय-निरुपाय कुछ कर नहीं पा रहे और ‘मजबूती’ के बजाय महात्मा गांधी का नाम ‘मजबूरी’ के रूप में प्रचारित करना आज चलन में है।
भौतिक रूप में चले जाने के बाद भी भारतीय राजनीति के ऐसे ब्रांड, जिनके किसी भी रूप में दिखने मात्र से आंदोलनों के स्वर में शक्ति पैदा हो जाती है। हाल ही में गुजरा विजयादशमी राम की विजय का त्योहार है। इस दिन रावण पर विजय पाकर राम के घर लौटने की यात्रा शुरू हुई थी। मुखौटों के साथ जीने वाले आज और राम के युग के परिप्रेक्ष्य में कवि मन से निकलती है व्यथा- ‘राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था/ दस के दस अपने सिर बाहर रखता था।’
बिना खड्ग और ढाल के आजादी दिलाने वाले साबरमती के संत का नाम तो आज भी राजनीति के मैदान चमकता दिखता है, लेकिन विचार के संदर्भ में देखें तो उनके जन्मदिन पर उनके विचारों को किसी रटे हुए वाक्य की तरह दोहराया जाता है और बाकी दिनों किसी बक्से में संभाल कर रख दिया जाता है, अगले साल के लिए। वे अंग्रेजों से निपट लिए थे।
देश की सबसे पुरानी पार्टी को भी काफी करीब से देखा था। पक्षधर थे उसके नवोदय के। प्रवीण थे नाटक और यथार्थ के बीच मोटी रेखा देखने में। सुरक्षाकर्मियों से घिरे तथाकथित उनके अनुयायी उनके जन्मदिन पर राजघाट पर बारी-बारी से आकर उनकी राह पर चलने की कसमें खाते हैं, उनके सपनों को साकार करने का वार्षिक संकल्प दोहराते हैं।
प्रत्यक्ष तौर पर तो तड़प उठते हैं नेता, सरकारी अफसर सभी, लेकिन उस दिन के बाद क्या करते हैं। ‘उसने कहा था’ की तर्ज पर अखबार के हर पन्ने पर सुभाषित होते हैं। सभी टीवी चैनलों पर ‘वैष्णव जन की पीर…’ सतह पर उतराती रहती है। लगे हाथ साधारण परिवार का एक और ‘लाल’ भी उन्ही के साथ संलग्नक हो याद कर लिया जाता है।
गांधीजी की तीन प्रधान ज्ञानेंद्रियों की अभिव्यक्ति को नए ढंग में लिया जाता है। ‘सत्यम वद और प्रियम ब्रूयात’ गया तेल लेने। प्रसंगवश ये घटना- नोआखाली में तत्कालीन मुख्यमंत्री सुहरावर्दी बापू से मिलने आते थे, तो वे शांति की बात तो करते थे, लेकिन दंगाइयों को भड़काने में उनकी भी भूमिका रहती थी! एक दिन जब वे बापू से मिल कर गए तो मनु ने आक्रोश में कह दिया कि जब तक सुहरावर्दी जैसे लोग हैं, शांति कैसे कायम हो सकती है! उनकी बात उचित भी थी, लेकिन बापू ने उस पर ध्यान नहीं दिया।
फिर मनु की बात कहने के ढंग पर अपनी नाराजगी जताते हुए जो कहा उसका निहितार्थ था कि तुमने ऐसे आदमी को, जो तुमसे उम्र में बड़ा और उच्च पद पर है, उसका नाम इस तरह क्यों लिया! उनका स्पष्ट मत था कि मनु को सुहरावर्दी साहब कहना चाहिए था। सीख अनमोल थी। बोलने का तरीका कैसा होना चाहिए, यह मायने रखता है। भाव खरे जरूर हों, पर खारे नहीं। कड़वे न हों, मीठे हों और मर्यादा में हों। आखिर बापू ही शांति के दूत बने, उसके प्रतीक बने।
मगर यह भी सच है कि जब राजनीति ही अभद्र अमर्यादित हो गई हो तो इसको वर्णित करने वाली भाषा-जुबान कैसे मर्यादित और शालीन हो। बापू के तीन बंदरों के संदर्भ समझने की जरूरत है। आज की सोच के मुताबिक बापू के बंदर बने रहने से काम नहीं चलने वाला। जहां भी बुरा देखें, बुरा सुनें, अपना मुंह खोलें। कड़वा बोलने से डरें नहीं। यह नहीं होने की वजह से ही अब बुरी बातें हौसले से सुनी जाती हैं, दुगने उत्साह के साथ आगे बढ़ाई जाती हैं। राष्ट्रीय अवकाश के कोष्ठक में बैठा कर उन्हें याद करने के बजाय कोसा जाता है। गोश्त और दारू की दुकानें तक बंद होती हैं और झुंझलाहट भरा दिन होता है ‘ड्राई डे’।
बापू आज होते तो शायद आर्त कंठ से कहते कि ‘किसको किसको सम्मति दें भगवान’! बापू की मुस्कराती मुद्र्रा का ‘क्लोज-अप’ यानी नजदीक से ली गई तस्वीर कागजी रह कर भारतीय मुद्राओं के विभिन्न स्वरूप पर ही नजर आती है। जद्दोजहद भरी जीवनशैली में सूर्यभानु गुप्त की ये पंक्तियां याद आती हैं- ‘वही सुबह-शाम/ वही-वही काम/ बिना लगे गोली, मन/ बोले- हे राम!’ और अंत में यह यथार्थ कि ‘राम नाम के सत्य’ का बोध कब होता है… ये कौन नहीं जानता!